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पुस्तक समीक्षा: बस्ते में सवाल

‘बस्ते में सवाल’ एक नये ढंग की कहानी है जो शुरू तो होती है बच्चों के बस्ता झाड़ने के एक दैनंदिन अनुभव से, लेकिन अंत होते-होते वृहत्तर सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ती है, और सवालों के बने कहने, नये – नये सवालों के बनते रहने के मूल्य को स्थापित करती है।

एक दिन एक बच्चा अपना बस्ता साफ़ कर रहा हैं। साफ़ करते हुए बस्ते को उलट कर झाड़ता है। उसमें से कुछ अजीब सा नीचे गिरता है।

“अरे यह तो सवाल जैसा कुछ लगता है! हवा न मिलने से वह बीमार और जख्मों से भरा था। इलाज क्या हो किसी को ठीक ठीक पता न था।” कोई कहता सवालों पर पानी डाल दो, कोई कहता उसे लोहे के बक्से में बंद कर दो। कोई कहता उसे भारी पत्थर के नीचे दबा दो।

लेकिन बच्चे ने उसके सही इलाज की ठान ली। उसकी बहन ने कहा हम पुरानी किताबों में नुस्ख़ा ढ़ूँढ़ें। फिर उसने कौवे से पूछा। एक बहन ने अपने प्रिय गाने से पूछा। एक और बहन और उसका दोस्त भी इस मुहिम में शामिल हो गए। कौए ने चींटी से बात की। चींटी ने गिलहरी से। दोस्त ने पत्थर से। गाने ने सरगम से,सरगम ने हवाओं से, हवाओं ने तारों से। हर जगह सब सवाल का नुस्ख़ा खोजने में लग गए। यह प्रविधि लोककथाओं वाली है।

एक सिलसिला चलता रहता है—कौआ गिलहरी से, गिलहरी बछड़े से…।
सवालों ने बड़ों की दुनिया में खलबली मचा दी। और एक दिन सरकार को पता चल गया। उसको ख़तरा लगा।

“ये सवाल पूछेंगे क़ि हम बन्दूक क्यों बनाते हैं, धरती को टुकड़ों में क्यों बाँटते हैं,नफ़रत क्यों फैलाते हैं….?”
“अंत में सरकार ने सवालों की खोज पर पाबन्दी की घोषणा कर दी।”

यह कहानी सवाल करने और करते रहने और सब कुछ पर सवालिया निशान लगाने को बड़े मूल्य या आदर्श की तरह स्थापित करती है। यह समाज की बेहतरी और ज्ञान के विकास के लिए ज़रूरी है। निश्चित रूप से यह एक राजनैतिक रचना है जो सत्ता के प्रतिरोध तक जाती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या बच्चों के साहित्य में इतने खुले तरीक़े से राजनीति की बात की जा सकती है?

देखा जाए तो पंचतंत्र, गुलिवर की यात्राएँ और बहुत सी लोककथाएँ भी राजनैतिक आशयों से भरी हैं। फिर भी पूछा जा सकता है कि क्या साफ़ – साफ़ ऐसी राजनैतिक चर्चा उचित है? इसमें दो मत हो सकते हैं। मेरा मत है कि की जा सकती है क्योंकि हमारे विश्व और समाज में प्रत्येक राजनैतिक फ़ैसले का पहला शिकार बच्चे और औरतें ही होती है। इसलिए उनको सब कुछ जानने, पूछने का हक़ है। जहाँ तक इस कहानी की बात है, इसमें सारा जोर सवाल पूछने पर है। जो सवाल दिए गए हैं वे मनुष्यत्व के, सबके हित के सवाल हैं। और सवाल पूछना, नये नये सवालों की खोज और प्रसार ज़रूरी है। ज्ञान-विज्ञान का विकास नये सवालों की वजह से ही होता है। ज्ञान की जड़ संदेह में है।

अब यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह किसी बात को कैसे, कितना प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न तरीक़े से कहता है। लोककथाएँ और दुनिया का श्रेष्ठ बाल साहित्य इसमें मददगार हो सकता है। यह रोचक,बेधक और विचारप्रवण रचना है सयाने बच्चों के लिए।


बस्ते में सवाल
लेखन: लोकेश मालती प्रकाश
चित्रांकन: कनक शशि
यह किताब एकलव्य द्वारा प्रकाशित है। इसका निर्माण पराग द्वारा समर्थित है।

अरुण कमल हिंदी के कवि, निबंधकार और आलोचक हैं। उनके छह कविता संग्रह, तीन चयन तथा साहित्यिक निबंधों की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने बच्चों के लिए दो किताबें लिखी हैं, जिनके नाम “हवामिठाई” और “एक चोर की चौदह रातें” हैं। अरुण कमल पटना विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे हैं। उन्हें कविता के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1998), भारतीय भाषा परिषद का समग्र कृतित्व सम्मान समेत अनेक पुरस्कार मिले हैं।

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