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पुस्तक समीक्षा : हरी पतंग पे हरा पतंगा

बच्चों के लिए रचित कविताओं की दुनिया कितनी बदल चुकी है, इसका अंदाज़ वरुण ग्रोवर की यह छोटी सी किताब सहज ही दे देती है। बिल्ली-चूहे या बने बनाए छंदों में उपदेश परोसने वाली कविताएँ अब पुरानी पड़ चुकी हैं। अब नये-नये विषयों पर कल्पना की ऊँची उड़ानों वाली, भाषा और शब्दों के नये प्रयोग या खेलों वाली कविताएँ अपना स्थान बना चुकी हैं। पिछले एक दो दशकों में यह नवीन सृजनात्मकता संभव हुई है जिसके कारण रोज़-ब-रोज के साधारण से प्रसंग या ब्योरे कल्पना का स्पर्श पाकर जादुई आभा से जगमग करने लगते है।

‘हरी पतंग पे हरा पतंगा ‘ ऐसी ही एक लम्बी कविता है जिसके पद अलग से भी पढ़े जा सकते हैं। बात बस इतनी सी है – दो सवार बादल की खोज में घर से निकले हैं। बारिश हो नहीं रही है। सूखा है। चलते-चलते उन्हें बादल तो नहीं मिलता लेकिन एक ज्ञानी मिल जाता है जो समझाता है-

सामग्री सब
लेके जाओ
अपना बादल
आप बनाओ

और वे सारा कुछ लाद कर अपने गाँव ले आते है। यह सामग्री क्या है? किसी वैद्य का चमत्कारी नुस्खा या जादूगर का हैरतअँगेज काला थैला! नौ नौ मटकी, जिनमें रेत थी हर दरिया की, अंकारा की घास, मेघालय के बाँस, नील नदी के ग्यारह कंकड़, चीन की चीनी, रूस का काला नमक, पेरू के बारह केले, फ़्रांस के तेरह ढेले, वग़ैरह वग़ैरह। और बिल्ली की मूँछ का एक तिनका भी।

एक हाँडी में सबको पकाया जाता है। अभी भी सूखा है। नदी पोखर सब ख़ाली हैं। सब धैर्य और आशा से इंतज़ार कर रहे हैं

कितने हफ्ते
पड़े रहे बस
ज़िद पे अपनी
अड़े रहे बस

थके – थके सबको नींद आ गयी। मगर एक गिलहरी जगी रही और उसने कुछ किया कि सब निहाल हो गये। इच्छाशक्ति, ज्ञान और मेहनत से आदमी ने अपना बादल बना लिया। यह आदमी के जीवट की जीत हुई।

सफ़र था लम्बा
बात कठिन थी
मेघ विधि भी
बड़ी जटिल थी

यह कविता पढ़ने में बहुत रोचक है। बोल बोल कर पढ़ने पर इसके चपल, टाप-भरे संगीत को महसूस किया जा सकता है। पूरे-पूरे वाक्यों से बने छंद अनेक प्रकार की लयों को ध्वनित करते हैं। पंक्तियाँ प्राय:तुकांत हैं और तुक बहुत पुख्ता। कुछ पंक्तियाँ असाधारण रूप से कविता की शक्ति से आविष्ट हैं-गाँव में सूखा अब तक जारी, आस से सबकी आँखें भारी, बादल को तो बनना होगा, हवा को गीला सनना होगा।

आस से भारी आँखें या ‘हवा का गीला सनना’ अद्भुत प्रयोग हैं जो किसी भी श्रेष्ठ कविता से होड़ ले सकते हैं। साथ ही, कथा कहते हुए भी यह कविता कथा बनने की प्रक्रिया को भी दिखलाती चलती है – रात भी पाँच पहर सोती है, कथा शुरू ऐसे होती है…। और अंत में – बादल की भी विधि होती है, कथा यहाँ पे इति होती है। यानी जिस तरह बादल बने वैसे ही कथा बनी।

यह कविता एक कथा भी है – पद्य में कथा। कथा के मूल में बादल बनाने की बात है। यह काम गाँव के लोग करते हैं। आदमी करता है। पानी के लिए आसमान पर निर्भर न रहकर खुद बादल बनाने की कल्पना ही बेहद आकर्षक है। वैसे कई जगहों पर कृत्रिम बादल और बारिश के प्रयोग हाल में हुए हैं। हो सकता है इस कविता के बनने में इससे भी प्रेरणा मिली हो। लेकिन मज़ा तो, बादल बनाने की अजीबोग़रीब जादुई विधि में और धैर्य, लगन और इंतज़ार में। जो नहीं है उसका हो जाना—यही तो जादू करता है। यहाँ भी वही जादू है, लेकिन उस जादू के पीछे आदमी की इच्छाशक्ति और मेहनत और ज्ञान है। बिना इतना कुछ बोले कविता एक पाठ भी पढ़ा देती है – अपना बादल आप बनाओ। यह सरल सी कविता काफ़ी जटिल विधि से बनी है और अनेक स्तरों पर चलती है। विज्ञान, जादू और गणित (पंद्रह कोस पे सोलह तिनका) और लोककथाएँ – सबका समावेश करते हुए एक प्यारी संगीतात्मक कविता का निर्माण हुआ है।

कुछ शब्द-प्रयोग नये और दिलचस्प हैं – ‘छै-गो मुसाफ़िर’।

यह किताब और यह कविता बिना चित्रों के इतना सुंदर और मोहक नहीं हो सकती थी। एलन शॉ के चित्र व रंग इस कविता के श्रृंगार हैं।


हरी पतंग पर हरा पतंगा, वरुण ग्रोवर ने लिखी है और इकतारा ने प्रकाशित की है। चित्र एलन शॉ के हैं। इस पुस्तक का निर्माण पराग द्वारा समर्थित है।

अरुण कमल हिंदी के कवि, निबंधकार और आलोचक हैं। उनके छह कविता संग्रह, तीन चयन तथा साहित्यिक निबंधों की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने बच्चों के लिए दो किताबें लिखी हैं, जिनके नाम “हवामिठाई” और “एक चोर की चौदह रातें” हैं। अरुण कमल पटना विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे हैं। उन्हें कविता के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1998), भारतीय भाषा परिषद का समग्र कृतित्व सम्मान समेत अनेक पुरस्कार मिले हैं।

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