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किशोर उम्र में पहचान और व्यक्तित्व निर्माण की उलझन पर बात

अनिल सिंह

फर्डीनैण्ड की कहानी न्यूयार्क के पेंगविन रेंडम हाउस के ग्रॉसेट एंड डनलप प्रकाशन छाप के माध्यम से 1936 में प्रकाशित हुई। यह मूलतः अंग्रेजी में है। लेखक मुनरो लीफ और चित्रकार रॉबर्ट लॉसन को इसके रचनाकार होने का श्रेय हासिल है। मैंने दरअसल इसका हिन्दी अनुवाद पढ़ा है। भारत ज्ञान विज्ञान समिति ने जन वाचन आंदोलन के तहत दुनिया भर के बेहतरीन साहित्य को हिन्दी पाठक जगत में उपलब्ध कराने की गरज से नब्बे के दशक में यह अहम काम किया।

तो हम लौटकर फर्डीनैण्ड पर आते हैं क्योंकि आज यह बात उसके ही बहाने से की जा रही है। फर्डीनैण्ड एक बछड़ा है जो अपनी तरह से जीना चाहता है, अपनी पसंद से जीना चाहता है और अपनी तरह की पहचान के साथ जीना चाहता है। वह छुटपन से ही कॉर्क के पेड़ के नीचे बगीचे में अपनी मनपसंद जगह पर दिनभर बैठता है और फूलों की खुशबू से खुश रहता है। अपने हमउम्र बछड़ों की तरह उसे उछलना – कूदना, आपस में सींगें टकराना, और लड़ना झगड़ना पसंद नहीं। पर बैलों के लिए तो यही तय है कि वे तगड़े और दमदार बनें, ताकतवर और गुस्सैल बनें, फुर्तीले और लड़ाका हों। उनकी बड़ी बड़ी नुकीली सींगों और तगड़ी माँस पेशियों को देखकर लोग उनसे खौफ खाएं।

पर फर्डीनैण्ड को कुछ और ही पसंद है। वह अपनी पहचान एक शांत, धैर्यवान, फूलों की महक पर मोहित रहने वाले बैल के रूप में देखता है। वह एक साधारण बैल बनना चाहता है।

उसके हमउम्र बैलों को कहा गया होगा कि वे लड़ाका बनें, उनका यही व्यक्तित्व अपेक्षित है। बैल की तरह बड़े हों और बैलों वाला व्यवहार करें। पर फर्डीनैण्ड थोड़ी हटकर है। कहानी में उसकी माँ को उसकी फिक्र तो होती है कि कहीं वह अकेलेपन का शिकार तो नहीं; पर फर्डीनैण्ड को अपनी पसंद के साथ जीने में खुश देखकर उसे तसल्ली है। वह एक समझदार गाय माँ है।

पर हम इन दिनों क्या देखते हैं? किशोर उम्र के लड़के- लड़कियां अपनी पहचान और व्यक्तित्व निर्माण के संकट से जूझ रहे हैं। अव्वल तो उन्हें स्कूली शिक्षा ऐसा मौका ही नहीं दे रही कि वे अपनी पसंद, रुझान और नैसर्गिक स्वभाव के साथ आगे बढ़ पाएं और अपनी तरह से जी पाएं। फिर परिवार और व्यापक समाज की तरफ से उनपर दबाव है कि वे उनकी अपेक्षा के अनुरूप तैयार हों। कहानी में गाय माँ, सिर्फ माँ नहीं बल्कि अभिभावक सहित पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करती है। कहानी में एक व्यंग्य वाक्य के रूप में यह बात आती है। कहानीकार लिखता है “वह गाय होने के बावजूद एक समझदार माँ थी”।

फर्डीनैण्ड के बहाने

डॉक्टर, इंजीनियर, आईटी एक्सपर्ट, बिजनेस एक्सपर्ट, आईएएस, आईपीएस और आईएफएस की ही सारी कवायद है। स्कूली शिक्षा इसी की तैयारी पर सारा जोर दिए हुए है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विविध विकल्पों के प्रावधान के बाद भी स्कूल इसे खुलेपन के साथ स्वीकारने को तैयार नहीं। इसके लिए न तो उनकी और न ही अभिभावकों की तैयारी दिखती है। रही सही कसर कोचिंग संस्थानों के शिकंजे ने पूरी कर रखी है। इनके इतर जाने का रास्ता नहीं। और अगर कोई रास्ता तलाशे भी तो वह अकेला और उपेक्षित पड़ जाने वाला है।

फर्डीनैण्ड के बहाने

कहानी में फर्डीनैण्ड एक मजबूत किरदार की तरह उभरता है। वह फूलों की खुशबू के साथ बड़ा होता है। है तो वह बैल ही, भरा- पूरा, हष्ट- पुष्ट और तगड़ा बैल। लेकिन किसी को डराने या मारने के लिए नहीं। सींगे और आँखें तरेरने के लिए नहीं। सिर टकराने और या पैरों से जमीन कुरेदकर अपनी बैलानगी दिखाने के लिए नहीं। वह एक बैल के रूप में शांत और खुश रहना चाहता है।

जबकि उसके हमउम्र बैल अपने सिर टकराने, आपस में सींगे उलझाने और उछलकर जमीन कुरेदने वाले खूंखार बैलों की तरह तैयार हुये हैं। वे इस आशा में हैं कि किसी दिन उनकी इसी बैलानगी को देखते हुए उन्हें मैड्रिड की प्रतिष्ठित बुल फाइटिंग के लिए चुना जाएगा। यह बैल जीवन की एक बड़ी उपलब्धि की तरह है।

लकिन फर्डीनैण्ड को इसकी परवाह नहीं। वह हष्ट पुष्ट, तगड़ा और भरपूर बैल होने के बावजूद बुल फाइटिंग के लिए चुने जाने की कोई आकांक्षा नहीं रखता। उसकी माँ भी नहीं रखती।

पर हम अपने चारों तरफ क्या देखते हैं ? नर्सरी की उम्र से ही बच्चों पर एक्स्ट्रा कैरीकुलर ऐक्टिविटी का बोझ लाद दिया जाता है। वह भी बच्चों की पसंद या रुझान से नहीं बल्कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षा से। आरंभिक स्कूल के दिनों से ही उसे कुछ बनाने के लिए सब पिल पड़ते हैं। और बाजार ने तो इस मौके को खूब भुनाया है। मैं ऐसे बहुत से बच्चों को जानता हूँ जो गणित विषय या अंग्रेजी विषय के साथ सहज नहीं हैं। उस विषय का खौफ उन्हें असहज करता है। वे खुश नहीं हैं। पर वे पूरी स्कूली शिक्षा में उस विषय को जबरन ढोने और नाखुश रहते हुए भी निभाने को मजबूर हैं। वे बाकी सहपाठियों से अलग थलग होकर पढ़ने और बढ़ने, अभिभावकों या शिक्षकों से अपने मन की बात कह पाने का साहस और निर्णय नहीं कर पाते। इस तरह के निर्णयों में अभिभावकों का सपोर्ट और स्कूल का खुलापन न होने के कारण बड़ी तादाद में किशोर उम्र के लड़के लड़कियां अवसाद, तनाव और चिंता व नैराश्य जैसे मानसिक उलझनों का शिकार हो रहे हैं। स्कूली उम्र में ही आत्महत्या के आँकड़े पिछले दस सालों में तेजी से बढ़े हैं।

फर्डीनैण्ड खुश होकर अपनी तरह से जीना चाहता है। यह अपनी तरह से जीना इतना मुश्किल क्यों बना दिया गया है? स्कूल इन बच्चों को उनकी पसंद के अनुरूप गायक, रंगकर्मी, चित्रकार, कवि या शायर बनकर जीने के लिए तैयार कर पाने में क्यों असफल है?

फर्डीनैण्ड एक स्टीरियो टाइप इमेज को तोड़ता है। अपनी वैसी आइडेंटिटी बनाता है जिस आइडेंटिटी के साथ वह सबसे ज्यादा खुश है। उसकी पर्सनैलिटी एक खुश, संतुष्ट और नैसर्गिक स्वभाव वाली है। उसपर किसी महत्वाकांक्षा का बोझ नहीं। उसमें किसी के जैसा बनने या किसी मुकाम पर पहुँचने की होड़ नहीं। बैलानगी का प्रदर्शन न करते हुए भी वह जन्मजात बैल है, लेकिन वह एक अलग हटकर पहचान अर्जित करता है। मैड्रिड में बुल फाइटिंग के लिए सबसे तगड़े और बलिष्ठ बैल के रूप में चुन लिए जाने के बाद भी वह स्टेडियम में फाइट नहीं करता। पिकाडोर के उकसाने के बावजूद वह बलप्रयोग नहीं करता। वह कोई प्रदर्शन नहीं करना चाहता। वह नहीं लड़ना चाहता। वह सिर्फ इसलिए क्यों लड़े कि वह एक बलिष्ठ बैल है? उसे मेड्रिड के इस प्रतिष्ठित बुल फाइटिंग रिंग में एक खूंखार और लड़ाका बैल होने का तमगा नहीं पहनना। वह स्टेडियम की दर्शकदीर्घा में बैठी महिलाओं के बालों में लगे फूलों की फैल रही खुशबू लेना चाहता है। स्टेडियम के बीच शांत बैठकर अपनी नाक उसी तरफ कर वह फूलों की खुशबू से खुश होना चाहता है। और थक- हारकर बुल फाइटिंग के आयोजकों को उसे घर वापस भेजना पड़ता है।

फर्डीनैण्ड के बहाने

फर्डीनैण्ड कहानी को अपनी तरह से एक अनूठा और अप्रत्याशित मोड़ देता है और उसका वैसा अंत करता है जैसा वह चाहता है। लेखक मुनरो लीफ भी पूरी तरह से फर्डीनैण्ड के साथ है। स्कूल, अभिभावक और समाज से भी यह उम्मीद की जाती है कि वह फर्डीनैण्ड को अपनी तरह से बड़ा होने दें, अपनी तरह का बनने दें और खुश रहकर जीने में मदद कर पाएं।

कहानी की अंतिम पंक्तियाँ कमाल की हैं। मुनरो लीफ लिखते हैं “मुझे मालूम है कि इस सबके बाद फर्डीनैण्ड अभी भी कॉर्क के पेड़ के नीचे अपनी पसंदीदा जगह पर बैठा हुआ है, और खामोशी से फूलों की खुशबू ले रहा है। वह बहुत खुश है!” यह खुश रहना कितना अहम और जरूरी है। अपनी तरह का बन पाने की खुशी। अपनी तरह से जी पाने की खुशी।

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