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बनते कहाँ दिखा आकाश

इस संग्रह की कविताएँ विस्मय-बोध, शब्द-क्रीड़ा और फैंटेसी का अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ साधारण और आसपास की चीज़ों के भीतर बसने वाले रहस्य और सौन्दर्य को मनोरम तरीक़े से व्यक्त किया गया है। ये कविताएँ कल्पना को पंख देती हैं और हर वस्तु के अलक्षित पक्ष को ढ़ूँढ़ने को प्रोत्साहित करती हैं। ’कहने को कुछ बचा नहीं ऐसा कभी नहीं होता’, यह वाक्य रचनाशीलता के मंत्र की तरह है।

साथ के चित्र भी अपने प्रयोगशील रंगों और रेखाओं से कविता को प्रकाशमान करते है।

जुगनू प्रकाशन 2022 विनोद कुमार शुक्ल तपोशी घोषाल