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Author (Hindi)
Shortlist 2019
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“बच्चों को कब क्या पसंद आ जाएगा यह उतना ही अनिश्चित है जितना कि जिंदगी”

 बच्चों के लिए लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

लेखन में खुद ही एक आकर्षण होता है जैसा दूसरी कलाओं में होता है। तो मैं लिखे बिना रह नहीं सकता था सो लिखने लगा।

जब से आप बच्चों की किताबें पढ़ रहें हैं तब से आपने हिंदी बाल साहित्य की प्रकृति और प्रवृत्ति कोई बदलाव महसूस किया है?

बहुत बड़ा बदलाव हिंदी बाल साहित्य में इस दौरान आया है। बच्चों के लिए लिखने को कोई लिखना नहीं माना जाता था। केवल बच्चों के लिए लिखकर किसी की हिंदी साहित्य में पहचान नहीं बन सकती थी। हिंदी का कोई भी बड़ा प्रकाशक बच्चों की किताबों को उम्दा कागज़ पर, स्तरीय चित्रांकन के साथ छापने में रूचि नहीं लेता था। आज तस्वीर एकदम बदल गई है।

बच्चों के लेखन के सन्दर्भ में मौलिकता क्या है?

कहने को कहा जा सकता है कि आपको बच्चों के मनोविग्यान की समझ होनी चाहिए, उनकी रुचियों को जानना चाहिए, किस आयु में उन्हें क्या पसंद आता है ये पता होना चाहिए। मान लीजिये ये सब पता भी है और लिखना नहीं आता, या आप जो लिख रहे हैं वह साहित्य नहीं हो पा रहा है तब क्या करेंगे। और बच्चों को कब क्या पसंद आ जायेगा यह उतना ही अनिश्चित है जितना कि जीवन। दूसरी बात, बच्चों के लिए लिखने के लिए कुछ अलग बातें चाहिए होंगी और बड़ों के लिए लिखने के लिए कुछ अलग बातें चाहिए होंगी ऐसा नहीं है। और लेखन का कोई फार्मूला नहीं है। इसलिए यह बता पाना कि बच्चों के लिए लिखने में क्या मूलभूत बातें हों यह मुझे मालूम नहीं है।

क्या आपकी कोई पुस्तक किसी अन्य भाषा में अनुदित हुई है? 

“साइकिल का सपना” किताब मुंडारी भाषा में अनुदित हुई है। “झूलता रहा जाता रहा” अंग्रेजी में अनुदित हुई है। कुछ और किताबों के अनुवाद के लिए अनुमति लोगों ने मांगी है लेकिन वे किताबें अभी मुझ तक पहुंची नहीं है।

आपकी पसंदीदा पुस्तक कौन सी है? कृप्या उस पुस्तक के बारे में संक्षेप में बताएँ| 

आलोक धन्वा का कविता संग्रह “दुनिया रोज़ बनती है” मेरी पसंदीदा किताब है। वह हिंदी कविता की भाषा और और कहन की एक और ऊंचाई है। उन कविताओं में प्रकृति जैसा आकर्षण है।

आपका पसंदीदा लेखक कौन है और क्यों?

 लियो टॉल्सटोय मेरे पसंदीदा लेखक हैं। उन्होंने जीवन के जिन मार्मिक और जीवंत विवरणों को जिस सौन्दर्यपूर्ण दृष्टि और वस्तुनिष्ठता से लिखा है वह बिरले ही किसी से संभव हुआ है। उनका साहित्य इतना उदात्त, महाकाव्यात्मक और विशद है कि लगता है जैसे संसार की ही पुनर्रचना कर दी हो।

 आपके लेखन करियर में अब तक का आपका सबसे अहम अनुभव क्या है?

काम के सिलसिले में देश में कई जगह जाना होता है। जब देखता हूँ कि वहां मेरा कोई गीत गाया जा रहा है, कविता सुनाई जा रही है तो बढ़िया लगता है। या जब बच्चे मेरी रचनाएँ अपने नाम से बच्चों की पत्रिकाओं में छपने भेज देते हैं तो यह सोचकर अच्छा लगता है कि शब्दों के उस खेल को उन्होंने अपना लिया है।

आपके अनुसार, बच्चों के साहित्य को बढ़ावा देने में पुरस्कार क्या भूमिका निभाता है ?

सवाल ये है कि किसी अवार्ड की साख या विश्वसनीयता कितनी है। बाकी तो अवार्ड के बहाने कोई किताब या कोई लेखक चर्चा में आता है,उसके बहाने साहित्य पर बातचीत एक अवसर बन जाता है। सोचने विचारने का एक माहौल बनता है।

क्या आप बच्चों के साथ काम करते हैं? यदि हाँ, तो उनके साथ आपके जुड़ाव ने क्या आपके लेखन को प्रभावित किया है?

 मैंने दो साल एक संस्था में बच्चों के साथ शिक्षण पर काम किया है, और कई कार्यशालाएं की है और खुद मेरे दो बच्चे हैं और मैं खुद कभी बच्चा था वे यादें भी मेरे ज़ेहन में हैं। तो जब मैंने शिक्षण का काम किया उन बच्चों के साथ के कुछ दिलचस्प अनुभव कहानियों में आये हैं। उन्हें हर बार नयी कवितायेँ चाहिए होती थी तो मैं लिखता था, धुन बनाता था, उनके साथ गाता था। ‘पानियों की गाड़ियों में’ और ‘घुमंतुओं का डेरा’ किताबों की कवितायेँ और गीत तभी के हैं। ‘अमिया’ किताब की कुछ कहानियाँ मेरे अपने बचपन की घटनाओं पर आधरित हैं कुछ मेरी बेटी के बचपन की घटनाओं पर आधारित हैं।

हमारे समाज में बाल साहित्य की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए क्या किया जा सकता है?

हम हाल के दशकों तक भी मौखिक परम्परा के लोग रहे हैं और बहुत बड़े क्षेत्र में अभी भी हैं। बाल साहित्य के लिखित स्वरुप का लुत्फ़ उठाना हमारे लिए नया-नया सा है। घरों में पढने लिखने की संस्कृति बने ऐसा कुछ हो, बच्चों में पढने की आदत के विकास के लिए स्कूली शिक्षा में काम हो, स्वतंत्रता के बाद जो एक दौर आया था जबकि कस्बों में सार्वजानिक पुस्तकालय होते थे और सत्तर अस्सी के दशक तक उनमें पाठकों की आवाजाही रहती थी। उन्हें गाँवों तक फैलना चाहिए था लेकिन गाँवों तक पहुँचने के बजाय जो थे वे भी धीरे-धीरे मरने लगे, उनके पुनर्जीवन के बारे में सोचा जाना चाहिए।

हम बाल साहित्य लेखन के लिए युवा लेखकों को कैसे प्रोत्साहित कर सकते हैं?

 एक बड़ा अच्छा उदाहरण इसके लिए हिंदी में अब हमारे पास है। इकतारा संस्था के तहत सुशील शुक्ल और शशि सबलोक बच्चों के लिए लिखने वालों की नियमित कार्यशालाएं करते हैं, जिसमें हिंदी के बड़े लेखकों के साथ नए लेखक भी होते हैं। लोग कुछ लिखकर लाते हैं, कुछ वहां लिखते हैं, फिर सुनते सुनाते हैं उस पर बातचीत होती हैं, और यह सब आयोजन यह मानकर किया जाता है कि इससे न तो कोई लेखक बन जाएगा और न ही कोई बड़ी रचना सामने आ जाएगी। लेकिन यह किया जाता है तो इससे लेखन के लिए एक ज़मीन तैयार होती है। ज़मीन होती है तो उस पर कुछ अंकुरित होने, फलने फूलने की सम्भावना बनी रहती है।

 गाँवों, कस्बों, जिलों में बहुत से लोग होते हैं जिनमें लिखने की चाहत होती है लेकिन न वहां पत्र पत्रिकाएं पहुँचती है न किताबें, न कोई आयोजन होते हैं न चर्चाएँ। वहां दोहरा नुकास्सन हुआ है। पारम्परिक अवसर ख़त्म हो गए और नए या आधुनिक अवसर रचे नहीं जा सके।

पश्चिम और भारत के क्षेत्रीय बाल साहित्य की तुलना करते हुए कोई टिपण्णी करना चाहेंगे| अपने देश के क्षेत्रीय भाषाओँ के बाल साहित्य में सचित्र बाल साहित्य की क्या स्थिति है?

पश्चिम की किताबें मैं अनुवाद के ज़रिये ही पढ़ पाता हूँ तो जैसे हमारे यहाँ बेहतरीन और बकवास दोनों तरह की किताबें देखने को मिलती हैं वहां की किताबों के साथ भी ऐसा ही है। हमारे यहाँ विनोद कुमार शुक्ल ने जो भाषा रची, भाषा की वह ऊंचाई कहीं के लिए भी एक दुर्लभ बात है। प्रेमचंद, टैगोर, आरके नारायण की कहानियों का जादू आज भी दुनिया में कायम है। मौखिक परम्परा की कहानियों में उक्राईनी लोक कथाओं के साथ राजस्थानी लेखक विजयदान देथा की ‘अनोखा पेड़’ के अलावा और कोई किताब मुझे दिखाई सुनाई नहीं दी।