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पुस्तक समीक्षा : उदयन वाजपेयी की ‘घुड़सवार’, जुगनू प्रकाशन
हिन्दी में बच्चों और किशोरों के लिए रचित साहित्य के क्षेत्र में हाल के वर्षों में गुणात्मक परिवर्तन आया है।नये प्रयोगों और विषय की विविधता के साथ उर्वर कल्पनाशीलता ने सर्वथा नयी कथाओं और कविताओं का सृजन किया है।इनमें से कुछ तो विश्वस्तरीय कही जा सकती हैं।प्रस्तुत पुस्तक ‘घुड़सवार’ ऐसा ही एक संकलन है।यहाँ तीन कहानियाँ और पाँच निबंध संकलित हैं।निबंधों के विषय नये हैं और रचना-पद्धति भी नयी है।ये विषय हैं—देखना,सुनना,स्पर्श,गन्ध और स्वाद यानी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके कार्य-व्यापार।इन पर पहले भी लिखा गया होगा।लेकिन यहाँ विज्ञान,कल्पना और कविता तीनों का अद्भुत रसायन मिलता है।’देखना’ शीर्षक निबंध में देखने की पूरी प्रक्रिया का अंकन है।’हम ध्यान के सहारे ही देखते हैं’ क्योंकि हम सब कुछ को देख कर भी नहीं देखते।आगे चित्रकार स्वामीनाथन के हवाले से बताया गया है कि ‘प्रकृति ने ही हमारी आँखों को यह ज्ञान दिया है कि हमें क्या सुन्दर लगेगा’।और देखने तथा पहचानने के लिए एक ख़ास दूरी की ज़रूरत होती है,न बहुत ज़्यादा न बहुत कम।हमारे देखने में हमारी कल्पना भी शामिल होती है।हम अपने देखने में अपनी तरफ़ से भी कुछ जोड़ते हैं।यहाँ कल्पना की भूमिका पर विशेष बल एक नयी बात है।
अगला निबंध ‘सुनना’ बतलाता है कि ‘संगीत सुनते समय हम केवल सुनते हैं।’उसका अर्थ लगाने की कोशिश कम ही करते हैं’।सुनने और देखने में यह फ़र्क़ है कि देखना सिर्फ़ एक दिशा में हुआ करता है (हालाँकि कई अन्य जीवों के लिए यह पूरा सही नहीं है) जबकि सुनना चारों तरफ़ से संभव होता है।यहाँ एक मार्मिक प्रसंग संगीतकार बिथोवन का दिया गया है।जब वह अपनी नवीं सिम्फनी लिख रहे थे ,वे पूरी तरह बहरे हो चुके थे।’वे अपनी सिम्फनी काग़ज़ पर लिखते थे और उसे मन में सुनते थे।कितनी सुंदर बात है कि जो संगीत उनके मन में उत्पन्न हुआ वह जैसे ही लिखाई से बाहर आया ,दुनिया भर की हवा उसे गोद लेने दौड़ पड़ी।’
अगला निबंध स्पर्श के बारे में है।’स्पर्श मनुष्य का आरंभिक अनुभव है’।बच्चा पैदा होते ही स्पर्श के सहारे ही संसार को पहचानने की शुरुआत करता है —‘छूतहि ते उपजे संसारा’(कबीर)।छूना हमारे और दूसरों के दुख को भी कम कर देता है।इसके अलावा ‘छूने से हमेशा ही दूसरे पर हमारी छाप छूट जाती है’।लेखक उदयन वाजपेयी कहते हैं कि सुनना और देखना छूने का ही परिणाम है।
गन्ध के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि गन्ध के जितने प्रकार होते हैं उतने शायद किसी दूसरे विषय के नहीं।हर चीज की गंध अलग अलग होती है।यहाँ एक प्रसंग लेखक के भाई की कुतिया का है जो गंध की लकीर पकड़े गुम जाने के कई महीने बाद वापस अपने मालिक के पास नये घर में पहुँच गयी।
अंतिम निबंध स्वाद पर है।यह पढ़कर हम अचम्भित हो जाते हैं कि ‘स्वाद हमारे अकेलेपन का एक और उदाहरण है’।आप कभी किसी के स्वाद की नक़ल नहीं कर सकते।बताया गया है कि स्वाद को छह तत्वों में विभाजित किया जा सकता है—नमकीन,मीठा,कड़वा,कसैला,अम्लीय और तीखा।इन छह तत्वों से ही दुनिया के सारे स्वाद बने हैं।इस निबंध में भी एक उदाहरण साहित्य से लिया गया है। प्रूस्त के एक उपन्यास में एक पात्र जब मेडिसिन केक चाय में डुबा कर खाता है तो बचपन की यादें एक एक कर उभरने लगती हैं।यानी एक ख़ास स्वाद अनेक स्मृतियों को जगा देता है।
इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के बारे में इतनी गहराई वाले लेख विरल हैं।और ये बहुत दिलचस्प भी हैं।हर लेख के सात संलग्न एक प्रसंग विषय को नया आलोक प्रदान करता है।
इनके साथ इस किताब में तीन बेहद पठनीय और कल्पनाप्रवण कहानियाँ हैं।इनमें एक कहानी भालू और बिल्ले के प्रसंग से यह दिखलाती है कि हर देह या जीव की अपनी इच्छाएँ और विवशता भी होती है।शहद पेड़ पर ऊपर है ,पर भालू इच्छा के बावजूद चढ़ नहीं सकता और जब वह बिल्लौटे के रूप में चढ़ने योग्य बनता है तो पाता है कि अब उसे शहद की चाह न रही।
दूसरी कहानी ऐसे राजा की है जो इतना लम्बा है कि नीचे कुछ देख ही नहीं सकता।अपनी रानी को भी नहीं।अगर झुका तो मुकुट गिरने का डर है।तब कोई उसे राजा मानेगा ही नहीं।ऊँचा होने की विडम्बना को यह कथा बहुत बारीकी से व्यक्त करती है।
सबसे महत्वपूर्ण कहानी है ‘घुड़सवार’ जो एक बेचैनी से भरे राजकुमार की कथा है।एक दिन उसे ऐसा घोड़ा मिलता है जो आवाज से भी तेज दौड़ सकता है।उसे माँ पुकारती है ,वह जंगल में है,जब तक उसकी आवाज़ ‘आ रहा हूँ माँ’ उस तक पहुँचती है तब तक खुद वही पहुँच जाता है।एक बार जंगल में शिकार करने के लिए वह एक हिरण पर तीर छोड़ता है।अचानक उसे लगता है,क्यों मैंने इस हिरण को मारना चाहा,उसने मेरा क्या बिगाड़ा था?और वह घोड़ा दौड़ाता है और तीर के पहुँचने के पहले ही वह वह हिरण के आगे खड़ा हो जाता है।तीर उसके कलेजे में लगता है और हिरण बच जाता है।यह जीव जगत के लिए प्रेम,करुणा और बलिदान की अपूर्व गाथा है।बीच में जीवों,कीट पतंगों,पेड़,तृण गुल्म के स्पन्दनों की अनेक घटनाएँ हैं जो मिल कर चरम परिणति तक ले जाती है—इस एहसास तक कि किसी भी जीव परहिंसा का मुझे क्या अधिकार है?
लोककथा,फैंटेसी और काव्य-कल्पना के मिश्रण से लेखक ने एक नया समानान्तर संसार रचा है।तीनों ही कथाएँ लोककथा की शैली और बुनावट में हैं ,लेकिन उनकी चिंताएँ और मूल्य बिल्कुल आज के हैं।भाषा सहज है,परंतु कई बार जटिल और घूर्णों से भरी है।अवधानपूर्वक पढ़ना जरूरी है।साथ के चित्र तानपूरे की तरह पाठ के स्वर से स्वर मिलाते हैं।प्रस्तुति और विन्यास मोहक है।
यह किताब न केवल किशोर पाठकों के लिए बल्कि सर्वसाधारण के लिए भी अवश्य पठनीय और संग्रहणीय है।कल्पनाशक्ति को समृद्ध करने के साथ यह पुस्तक अपने जीवन और भौतिक जगत को समझने के लिए भी ज़रूरी पाठ है।
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अरुण कमल आधुनिक हिन्दी साहित्य में समकालीन दौर के प्रगतिशील विचारधारा संपन्न, अकाव्यात्मक शैली के ख्यात कवि हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त इस कवि ने कविता के अतिरिक्त आलोचना भी लिखी हैं, अनुवाद कार्य भी किये हैं तथा लंबे समय तक वाम विचारधारा को फ़ैलाने वाली साहित्यिक पत्रिका आलोचना का संपादन भी किया है।
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