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बच्चों को लिए लिखने की मुश्किलें
फेरीवाले – सुशील शुक्ल द्वारा लिखित एवं नीलेश गहलोत द्वारा चित्रित | एकलव्य प्रकाशन
वैसे तो कविता लिखना ही मुश्किल है, लेकिन बच्चों के लिए लिखना, और अच्छा लिखना, सबसे मुश्किल काम है। यहाँ कई बातों को ध्यान में रखना पड़ता है और कई चीजों को एक साथ साधना पड़ता है। बच्चों के लिए लिखने और बाक़ी सब लिखने में सबसे बड़ा फ़र्क़ यह है कि बच्चों के लिए कविता स्वत:स्फूर्त नहीं हो सकती, न केवल उच्छ्वास हो सकती है। यह एक शिल्पकारी है। तय करके लिखना है। बहुत से पारम्परिक विषय जैसे राजनीति, यौन प्रेम, दुखांत अनुभव इत्यादि प्राय: परिधि के बाहर रह जाते हैं। एक सीमित लेकिन सर्वाधिक तरंगित अनुभव संसार को भाषा के भी किंचित् सीमित संसाधन का व्यवहार करते हुए व्यक्त करना पड़ता है। और इस तरह व्यक्त करना पड़ता है कि कविता पढ़ते हुए अवरोध न हो या अतिरिक्त ज़ोर न लगाना पड़े। निश्चित रूप से संगीत का तत्व हो, प्रगट लय, तुक, ध्वनियों के खेल और शब्द-क्रीड़ा। बोलचाल की भाषा तो हो, पर वह सतह से ऊँची हो। और हर वस्तु को ऐसे देखा जाए मानो पहली बार ही उसे किसी ने देखा है। कौतूहल, विस्मय निरंतर सहगामी होंगे। यानी हर कविता आश्चर्य लोक की यात्रा होगी। साथ ही, कभी भी ऐसा न लगे कि उपदेश दिया जा रहा है या चम्मच से जबरन घुट्टी पिलायी जा रही है। इतनी सारी बातों को साधना बेहद मुश्किल काम है। अभी हिन्दी में कुछ लोग ऐसे ज़रूर हैं जो इतना सारा काम एक साथ कर सकें। और उनकी कर्मशाला से जो कविता बन कर आती है वह जल्दी ही पढ़नेवाले की ज़ुबान पर होती है और फिर कंठस्थ भी। सुशील शुक्ल ऐसे ही कवि हैं और उनकी कविता ‘फेरीवाले’ ऐसी ही एक उदाहरण-कविता।
‘फेरीवाले’ हमारी रोज ब रोज की ज़िन्दगी के एक पात्र की कविता है। फेरीवाले कहते ही बहुत से चित्र आँखों के सामने खड़े हो जाते हैं। और दूर से आती उसकी पुकार हमें घरों से बाहर खींच लाती है। इस कविता में फेरीवाले का पूरा व्यक्ति-चित्र या पोर्ट्रेट प्रस्तुत किया गया है। उसके आने का इंतज़ार, उसका आना, उसका खोंमचा, खोंमचे के बेर, जामुन, शहतूत। उसका प्यार से पत्तों के दोने में जामुन देना। दाम न लेने की हठ। फिर इसरार। और पूरे मुहल्ले का उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा हो जाना। किसी को कुछ किसी को कुछ—सबकी फ़रमाइशें और प्यार भरी चाहत। हँसी ठिठोली। उसकारोज बेसब्र इंतज़ार। और एक दिन, फिर कुछ दिन उसका न आना। और चिंता। फिर एक दिन कमजोर चाल से आना। और सबकी सहानुभूति।
यह तो एक तरह का सारांश हुआ। असली मज़ा तो लय के साथ, तरन्नुम में, पढ़ने से आता है—
माहिर हैं अपने फ़न के लगाते हैं फेरियाँ
जामुन कभी शहतूत कभी देसी बेरियाँ
सिर पे उठाके घूमते हैं कितने ज़ायक़े
बातूनी ऐसे जैसे कोई आई है मायके
मंथर कतिये चलने वाली लय और पूरे वाक्यों वाली पद-संरचना नज़ीर अकबराबादी की याद दिलाती है। और हम पढ़ते चले जाते हैं। कभी कभी धुन बदलती भी है। पढ़नेवाला फेरीवाले से प्यार करने लगता है, उसके सामान, तौर तरीक़े, अदाएँ, मनुहार और फिर चिंता फिक्र। यह कविता एक पूरी दुनिया रचती है—
ये छोटा सफ़ेदा है और ये लालपरी है
अन्दर से सुर्ख निकलेगी बाहर से हरी है
कवि ने बोलचाल के हिन्दी-उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए मन की बातें भी भाँप ली है—
वो देख लेगा आँख जो चाहत से भरी है
और एक रोज उसका बीमार पड़ना। कई रोज न आना।
फिर आएगा एक रोज वो दुबला बहुत होकर
शायद करे बयान अपनी मुश्किलें रोकर
जो चाहेगा आज उसको वही दाम मिलेगा
इस बात से उसको बहुत आराम मिलेगा
यानी खरीद-बिक्री, मोल-भाव की बातें इन्सानी रिश्ते और हमदर्दी में बदल जाती हैं। यही प्रेम और सहानुभूति जीने की, जीवन की ताक़त है जो पढ़नेवाले को यह कविता एक शहतूत तरह भाषा के दोने में रखकर देती है।
किताब की प्रस्तुति और विन्यास आकर्षक है। पूरे पन्नों पर फैले जल-रंग वाले चित्र खूब ही जीवंत हैं और कविता को खोलते हैं।
खुशी इस बात है कि इधर बाल-कविताओं की कुछ शानदार किताबें आयी हैं और हिन्दी की बाल-कविता एक नये शिखर को पा चुकी है।
फेरीवाले पराग ऑनर लिस्ट २०२३ का हिस्सा है। यह किताब आप एकलव्य प्रकाशन के पिटाराकार्ट से खरीद सकते हैं।
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