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2021 में जब भीली लोक शैली की चित्रकार,भूरी बाई जी को पद्मश्री पुरस्कार दिया गया था तब से ही मेरे मन में यह इच्छा थी कि उनके किए कार्यों को बच्चों के बीच लेकर जाऊँ और बच्चों संग भीली आर्ट पर कुछ कार्य करूँ परंतु लॉकडाउन के कारण बराबर अनियमितता का दौर बना रहा। मैंने भोपाल स्थित भारत भवन में भी भूरी बाई जी के बनाए चित्र देखे थे। विशाल कैनवास पर बनाए गए उनके चित्रों में इतनी विविधता और सजीवता थी कि किसी को भी मोह लें।
लाइब्रेरी सत्रों के दौरान आज अपने विद्यालय (प्राथमिक विद्यालय धुसाह प्रथम, बलरामपुर) की कक्षा5 के बच्चों संग जब “सो जा उल्लू” किताब साझा की, तो मुझे यह अवसर मिला। साथ ही होली की तैयारी शुरू हो गई है तो मुझे लगा कि विद्यालय में रंगों की एक होली ऐसी भी हो सकती है, जब हम अपनी दीवारों पर भूरी बाई के चित्र बनाकर उनमें रंग भर लें।
इस विचार के साथ हमने पहले “सो जा उल्लू” किताब पढ़ी और उसके चित्रों पर काफी चर्चा की। किताब के प्रत्येक चित्र पर बच्चों संग बातें की। इस तरह की लोक शैली में चित्रांकन की हमारी लाइब्रेरी में यह अकेली किताब है। इसके पूर्व सुनीता जी द्वारा बनाई गई किताब मोर डूंगरी पर भी हमने बातें की थी , परंतु उसके चित्रों पर काम करने के लिए कक्षा के बच्चे अभी छोटे हैं। मैंने बच्चों का मन टटोला । वे बहुत ही उत्साहित थे। तभी मैंने प्रश्न किया कि क्या उनके घरों पर भी इस प्रकार के चित्र या मांडने बनाए जाते हैं l हमारा विद्यालय हिमालय की तराई के एक छोटे से गांव में स्थित है। नेपाल देश हमसे 70 किलोमीटर दूर है। यहां पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे ग्रामीण परिवेश के हैं।मेरी कक्षा में यूँ तो बहुत बच्चे नामांकित हैं, परंतु इस किताब के साथ सत्र में लगभग 40 से 45 बच्चे शामिल थे।
नागपंचमी और भैया दूज पर उनके घरों में चूने और गैरु से मांडने दीवार पर बनाए जाते हैं । मारवाड़ी घरों में मैंने अहोई अष्टमी पर चूने और गेरू से बने बहुत सुंदर मांडने देखे हैं।
अतः मैंने बच्चों के साथ, इस किताब के संदर्भ से कुछ चित्र कक्षा की दीवारों पर बनाने का प्रयास किया । पहले पेंसिल से पेड़, उल्लू, हिरण, गिलहरी, कबूतर, बंदर ,कौवा, गौरैया, हरील, कठफोड़वा और मधुमक्खी के छत्ते के चित्र बनाए परंतु इन में रंग भरना एक बड़ी चुनौती थी। खास करके पेड़ों का आकार बड़ा होने के कारण उसमें कौन सा रंग भरा जाए यह महत्वपूर्ण समस्या थी। हमारे पास कोई रंग भी नहीं थे। तब हमने विचार पूर्वक पेड़ पर गोबर से रंग भरने का निश्चय किया । विद्यालय के बगल में हमें गोबर आसानी से मिल गया, परंतु पेड़ों में गोबर से रंग भरने के लिए बच्चों में थोड़ा संकोच था । अतः मैंने स्वयं पेड़ों में अपनी उंगली से गोबर का लेप शुरू किया, तो उत्साह पूर्वक बच्चों ने देखते ही देखते सारे पेड़ रंग दिए । इसके बाद हमने कोयला पीसकर काला रंग बनाया और गेरू घोलकर चित्र में आउटलाइन के लिए लाल रंग तैयार किया। थोड़ा सा नील मंगा कर पंछी, हिरन आदि में रंग भरे । अभी भी हमारे चित्रों में चिड़ियों (गौरैया और कठफोड़वा)तथा फूलों को रंगने के लिए लाल और पीले रंगों की आवश्यकता थी । तब बच्चों ने आग्रह किया कि दुकानों पर होली वाले रंग मिल रहे हैं, तो लाल पीला और हरा रंग दो- दो रुपये का मंगाया और उन रंगों को थोड़े से पानी में घोलकर गाढ़ा पेस्ट तैयार किया । लकड़ी की पतली डंडियों पर रुई लपेटकर ब्रश तैयार किए। पत्तियों और फूलों में रंग भरने में बच्चों को बड़ा आनंद आया। थोड़ी ही देर में हमारे चित्रों में रंग भर गए । परंतु अभी भी उनमें वह बात नहीं आ पा रही थी। तब चूने और गैरू की मदद से कहीं-कहीं पर आउटलाइन की और कहीं-कहीं पर भीली आर्ट का प्रयोग करते हुए चित्रों पर रेखाएं खींची अथवा बिन्दु लगाए। अंत में हमारे चित्र सजीव से हो कर सामने आए । ऐसा लगता था कि उल्लू अभी बोलेगा और गौरैया अभी चीं चीं करने लगेगी।
बच्चे बहुत ही उत्साहित थे। लाइब्रेरी सत्रों में इस प्रकार गतिविधियों के होने से लाइब्रेरी जीवंत हो जाती है और पुस्तकें बच्चों के जीवन में जुड़ पाती हैं। उनका लाइब्रेरी से जुड़ाव बढ़ता है, और वे किताबों को जीना सीखते हैं। इसका सीधा प्रभाव उनकी सोच व लेखन पर भी पड़ता है, और वे अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं पर लिखने लगते हैं।
किताब से जुड़ाव
इस चित्रकारी के पूर्व , जब मैंने किताब का चयन किया, तो इसके पीछे मेरा एक स्पष्ट उद्देश्य यह था कि बच्चे अपने आस पास कहानी को महसूस करना सीखें। उन्हें लगना चाहिए कि कहानी हमेशा बनाई या गढ़ी नहीं जाती, अपितु बहुत-सी कहानियाँ हमारे इर्द गिर्द हो रही होती हैं।
‘सो जा उल्लू’ पढ़ते समय मैंने बच्चों से प्रश्न किया कि तुम सब सोते हो तो वे कौन-सी चीजें हैं जो नींद में दखल करती हैं।इस पर बच्चों की बड़ी मजेदार प्रतिक्रियाएं मिलीं। पवन का मानना था कि सबसे ज्यादा परेशानी चूहे से होती है, वे दौड़ दौड़ कर बर्तन गिरा देते हैं और उनकी आवाज पूरे घर में गूंज जाती है। मच्छर और गर्मी में लाइट जाना तो मुख्य वजह है ही। रोहित ने कहा डरावने सपने से भी नींद यदि टूट जाती है, तो जल्दी नहीं आती। रात में पिताजी की नाक से बजते घर्राटे भी नींद बिगाड़ देते हैं। करिश्मा ने बताया कि एक रात बहुत आँधी तूफान आने पर जब घर के किवाड़ ज़ोर-ज़ोर से हिलने और बजने लगे तो वो बहुत डर गई और उसकी नींद उचट गयी।
अगले दिन चर्चा में उल्लू की बात करते हुए यह समझ भी बनी कि आवाज हर बार किसी जानवर की नहीं होती । जैसे गिलहरी के खाने, कठफोड़वे के पेड़ में चोंच मारने, हिरन के पेड़ से सींघ रगड़ने से भी आवाज़ें निकलती हैं। हमने ध्वनि के कुछ और स्त्रोतों की भी चर्चा की। चारा काटने की मशीन, थ्रेशर, जनरेटर, गाड़ी मोटर, स्पीकर, डी. जे आदि से भी बहुत आवाज होती है, ये लिस्ट बच्चों ने समूहों में बनायीं।
इस किताब को पढ़ते समय जब भी कोई आवाज मैं निकालता तो बच्चे भी मज़े से वे आवाज़ दोहराते। पूरा कमरा गुंज जाता। कोयल की कुहू तो कुछ ने इतनी मधुरता से निकाली की लगा सच में कोयल बोल रही है।
जय शेखर (सहायक अध्यापक)
प्राथमिक विद्यालय धुसाह प्रथम
बलरामपुर, उत्तर प्रदेश
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