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‘सिर का सालन’ भी हमारे समाज का हिस्सा है।
‘बरास्ता तरबूज’ हमारे ही मन की बात है।

किताबें जीवन से निकली हैं और निकलती रहेंगी। जीवन में जितनी विविधता, उतार- चढ़ाव, अच्छा- बुरा, सकारात्मक- नकारात्मक है, उतना ही किताबों में भी मिलने वाला है। उत्तर आधुनिकता के इस कालखंड में जब हर एक समुदाय अपनी विशिष्टता और पहचान के लिए सुगठित हो रहा है और अपने विशिष्ट अधिकारों की बात करने लगा है हम सबको सबके बारे में जानने समझने और उनके प्रति संवेदनशील व उदार होने की जरूरत है।

औद्योगीकरण और आधुनिक वैश्विक राजनीति के चलते हम सब विविध और भिन्न सांस्कृतिक पहचान वाले समूह एक दूसरे के निकट आए हैं और साथ साथ काम करने की स्थिति में हैं तो हमें यह साहचर्य सीखना होगा। किताबें और अन्य प्रकार का साहित्य, कला, सिनेंमा आदि इस दिशा में हमारी बड़ी मददगार हैं। लेकिन जाहिर है कि इसमें विचारधाराओं, पहचानों, दावों की टकराहट भी उतनी ही स्वाभाविक है। एक पाठक, दर्शक या सराहनाकर्ता के तौर पर हम उस अनुभव से गुजरते हैं और वह हमारे एहसासों, विचार प्रक्रिया और धारणाओं को झंकृत करता है। इसके चलते हम उसपर एक तरह की प्रतिक्रिया देने की स्थिति में खुद को पाते हैं। यह प्रतिक्रिया व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों तरह की हो सकती है।

सोचना इस बात पर है कि क्या कोई किताब, चित्र या सिनेमा इतना आक्रामक हो सकता है जिससे हमारी एक लंबे समय की अर्जित पहचान पर संकट खड़ा हो जाए? हम इस समाज से अन्तरक्रिया करते हुए बड़े होते हैं और इस व्यापक समाज का हिस्सा बनकर इसी प्रक्रिया में योगदान कर रहे होते हैं। एक तरह से इस गतिशील समाज में हम कदमताल भी कर रहे होते हैं और इसे बदलने की अगुआई में भी शामिल होते हैं। समाज के इस बदलते और गतिमय परिवेश में तमाम विचार, मान्यताएं आती रहती हैं और समाज इसे संश्लेषित करते हुए कुछ को शामिल करता है और कुछ तो समय के साथ मद्धिम पड़ते हुए खत्म हो जाते हैं।

किसी किताब या सिनेमा को यह मानकर कि यह हमारे समाज की व्यापक मान्यता, धारणा या रूपरेखा के प्रतिकूल है, खारिज करना या उसे प्रतिबंधित करना समाज की गतिशीलता को चुनौती देना है। समाज सिर्फ बहुसंख्यक या एक जैसा सोचने, समझने या अनुभव करने वाले लोगों से मिलकर ही नहीं बना है, इसमें तमाम भिन्न विचारों, पहचानों और अलग जरूरत वाले लोगों का भी उतना ही हिस्सा है। और यह समाज जैसा आज दिखा रहा है वह हमेशा से ऐसा नहीं है उसने खुद को लगातार बदलते हुए आज ये स्वरूप पाया है। वह निरंतर बदल रहा है। हम अपनी पीढ़ी में अपने जीवन में उस बदलाव का शायद अंश मात्र ही महसूस कर पायें।

कोई भी साहित्य जो उद्वेलित करता है वह बदलाव की तरफ ही इशारा करता है। एक नई दृष्टि लाता है। जैसा पहले नहीं सोचा गया, नहीं देखा गया उसे सामने लाता है।

जब लोग अपने से भिन्न लोगों के बारे में या अपने मत से भिन्न जीवन शैली किताबों में पढ़ते हैं या सिनेमा में देखते हैं तो उन्हें जहां एक ओर यह आक्रामक लगता है वहीं दूसरी ओर मन के किसी कोने में उनके अपने सीमित होने, अज्ञान या अनभिज्ञ होने का भी एहसास जगाता है। इंसान मूलतः प्रगतिशील है, वह आगे बढ़ना चाहता है, पहले से ज्यादा जानना चाहता है और विविधता से समृद्ध होना चाहता है परंतु क्षणिक आवेश उसे अपनी पहचान और अपने मत तक सीमित कर देता है और वह किसी किताब या सिनेमा को अपने खिलाफ खड़ा पाता है। इसके चलते यदि कोई किताब या सिनेमा प्रतिबंधित कर भी दिया जाए तब भी उसके होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। वह एक ऐसी सच्चाई है जो अभी उद्घाटित हुई है लेकिन वह हमेशा से रही है, उसे स्वीकार न करके हम दरअसल समाज की व्यापकता और उसकी लगातार बदलते रहने की प्रवृत्ति से मुँह चुराते हैं।

शिक्षकों के एक प्रशिक्षण में मैंने एकलव्य प्रकाशन की ‘सिर का सालन’ किताब का इस्तेमाल किया। मोहम्मद खदीर बाबू की लिखी मूल तेलुगु कहानी, डीसी बुक्स द्वारा अंग्रेजी में Head Curry शीर्षक से प्रकाशित की गई है। किताब में एक बस्ती में शाम को एक घर में बकरे के सिर की स्वादिष्ट रसेदार सब्जी बनने का बहुत ही सजीव और स्वाभाविक वर्णन है। पढ़ने के बाद जब चर्चा की बारी आई तो शिक्षक नाक भौं सिकोड़ने लगे। कुछ ने कहा दूसरी किताब पर बात कीजिए, यह किताब ठीक नहीं है। एक ने तो ये कहा कि यह हमारी संस्कृति के खिलाफ है, शिक्षा तो पवित्र कर्म है वहाँ ऐसी किताब की चर्चा ठीक नहीं। दो शिक्षक तो उठकर बाहर ही चले गए; अफसोस कि वो बाद की इस सुंदर चर्चा में शामिल होने से वंचित रह गए।

मैंने किताब के सुंदर चित्रों की तरफ ध्यान दिलाया, और बताया कि ये एक बड़े भारतीय चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख बाबू द्वारा बनाए गए हैं। चित्रों की जीवंतता और उसमें निहित कला पक्ष और विशिष्ट शैली की बात की जिसके लिए गुलाम शेख जाने जाते हैं। फिर मैंने अगला सवाल किया कि अच्छा आप लोग ये बताएं कि कहीं पर ऐसी बस्ती सचमुच होगी कि नहीं ? वहाँ किताब में चित्रित लोग रहते होंगे कि नहीं ? उनका खानपान और जीवन शैली ऐसी होगी कि नहीं ? लोगों ने कहा हाँ यह तो सच है। कुछ ने तो अपने मुहल्ले के पास वाले मुहल्ले में इस समुदाय के रहने की बात कही। कुछ ने उनके साथ अपना परिचय होने की बात कही और यह भी कि वो कई पीढ़ी से वहाँ रह रहे हैं।

मैंने कहा अगर यह सब सच है तो इस सच में क्या मुश्किल है कि उनका खानपान अलग है। किताब में सिर्फ एक खानपान को कलात्मक और जीवंत तरीके से चित्रित किया गया है, कहानी किसी दूसरे के खान-पान के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करती। इसे सिर्फ इस तरह एक नयेपन से भी देखा जा सकता है। यह हमारा ही समाज है। हमेशा से है और इसी तरह से है। आज पहली बार किताब में आया तो हमें थोड़ा असहज लगा। क्योंकि हम जानते हुए भी अपनी सांस्कृतिक सीमाओं के कारण इससे अनभिज्ञ बने रहे हैं। आज एक किताब ने इसके बारे में इतने सुंदर तरीके से जानने का मौका दिया है तो हम मुँह फेर रहे हैं। हमे इस प्रयास का आदर करना चाहिए। हम इतने उदार न हुए कि हम इस बस्ती में जाकर कभी ये सब देख पाते या जान पाते, पर किताब हमें ये मौका दे रही है। हम जिस भारतीय संस्कृति और इसके व्यापक और विविध होने की बार-बार दुहाई देते रहते हैं उसमें ‘सिर का सालन’ भी शामिल है।

शिक्षकों का एक समूह अब थोड़ा समझने और स्वीकारने की स्थिति में था। परंतु बच्चों के बीच इसके इस्तेमाल को लेकर उनमें अभी भी स्वीकार्यता नहीं बनी थी। उन्हें यह डर था कि बच्चे डर जाएंगे या उनमें घृणा का भाव पैदा होगा। मैं उन्हें यही समझाने की कोशिश करता रहा कि हम ने तीस चालीस की उम्र तक आते आते अपनी धारणा, मत और एकतरफा पसंद पक्की कर ली है, इसलिए हमें इतनी अड़चन हो रही है पर बच्चे अभी अपनी धारणा बना रहे हैं, उन्हें सारे मौके मिलने चाहिए जानने समझने के।

इसी तरह एक और किताब को लेकर शिक्षकों के एक समूह के साथ हुई चर्चा का अनुभव यहाँ साझा करना चाहूँगा। एकलव्य प्रकाशन की ही एक किताब है ‘बरास्ता तरबूज’। किशोर मन का सहज प्रेम और आकर्षण इस किताब का केन्द्रीय विषय है। बहुत ही खूबसूरत और सजीव चित्रों के साथ इस कहानी को सरलता से बयां किया गया है। एक सामान्य सा लड़का रास्ते में सफर के दौरान एक हम उम्र लड़की के प्रति आकर्षण महसूस करता है। फिर उससे मिलने और उसे एक उपहार देने के लिए उस तक पहुँचने का बहुत ही सुंदर वर्णन है जिसमें कई जानवर उसका साथ देते हैं। और पास में कुछ नहीं होंने बावजूद अंत में एक नायाब उपहार गढ़ने और दे पाने में वह कामयाब होता है। अभिव्यक्ति ही सबसे बड़ी चीज बनकर उभरती है इसमें। किशोर उम्र की एक स्वाभाविक अनुभूति जो उतनी ही स्वाभाविक है जितनी धूप-गर्मी या भूख-प्यास। लेकिन लड़के और लड़की के बीच पनपे इस स्वाभाविक प्रेम और आकर्षण को लेकर हमारा मन इतना संकुचित हो जाता है कि हम इस किताब को बच्चों के साथ इस्तेमाल करना तो दूर इस पर चर्चा करने से भी कतराते हैं।

एक समूह कार्य के दौरान जिस शिक्षक समूह को यह किताब दी थी मैं उसके पास ही बैठा था। मेरी रुचि इस बात को जानने में थी कि समूह में इसे लेकर क्या और किस तरह की चर्चा होती है। एक शिक्षक ने इसे पढ़ने के बाद कहा सर हमें कोई दूसरी किताब दे दीजिए। मैंने पूछा इसमें क्या खराबी है? उन्होंने कहा यह बच्चों के लायक नहीं है। मैंने कहा अभी तो बच्चों की बात ही नहीं है अभी तो आप लोगों को अपने ही समूह में इस पर काम करना है। दूसरे शिक्षक ने इस बीच किताब उठा ली, उसने कहा कल यह किताब मैं देख चुका हूँ। यह लाइब्रेरी के लायक किताब नहीं है, इससे बच्चों पर गलत असर पड़ेगा। मैंने फिर पूछा इसमें ऐसा क्या है जिससे आपको लगता है कि इससे बच्चों पर गलत असर पड़ेगा। उन्होंने कहा यह बच्चों की किताब नहीं है, बच्चे ऐसा नहीं सोचते। मैंने कहा बच्चे प्रेम नहीं करते हैं क्या? बच्चे आकर्षित नहीं होते हैं क्या? उन्होंने जवाब में कहा यह सब स्कूल की उम्र में ठीक नहीं है। फिर एक दूसरे शिक्षक ने किताब पलटते हुए कहा यह हमारे भारत की किताब है ही नहीं। यह बाहर की किताब है इसका हिन्दी में अनुवाद करके तैयार किया गया है। उसने कहा कि बाहर ही ये सब फालतू के विषय चलते हैं हमारे यहाँ नहीं। मैंने फिर पूछा कि इसमें व्यक्त भावनाएं क्या भारत की नहीं हैं, क्या भारत में बच्चे प्रेम या आकर्षण महसूस नहीं करते? उनका जवाब था कि स्कूल की उम्र में सिर्फ पढ़ाई की बात होनी चाहिए। मैंने कहा कि दोस्ती-दुश्मनी, अभाव, चमत्कार, मदद, ईर्ष्या, लालच, खुशी-दुख, यथार्थ-कल्पना सब कुछ ही स्वाभाविक है और साहित्य का हिस्सा है तो फिर प्रेम से क्या परहेज है?

दरअसल हम अपनी अड़चन को बच्चों की भी अड़चन बना दे रहे हैं। प्रेम और आकर्षण को लेकर हम सजह नहीं है इसलिए बच्चों को भी हम इससे वंचित रखना चाहते हैं। बच्चों के बीच इस किताब को दिए बिना इसके स्वीकार होने या नकारे जाने का फैसला हमें नहीं करना चाहिए। किताबें तैयार करने वाले भी इसी समाज के जिम्मेदार समूह से हैं। इन पर और बच्चों पर हमें भरोसा करना चाहिए।

मुझे पता नहीं जिन शिक्षकों को ‘बरास्ता तरबूज’ में बड़ी दिक्कत दिख रही थी उनके नजरिये में कुछ फरक आया या नहीं पर इस चर्चा के बहाने अधिकतर शिक्षकों ने इस किताब को देखा पढ़ा। अधिकांश लोगों ने इसकी सराहना भी की और मजेदार यह रहा कि इसे पसंद करने वालों में महिला शिक्षक ज्यादा रहीं।

बच्चों के आसपास जीवन में सबकुछ अनवरत रूप से चल रहा है, सिर्फ स्कूल ही नहीं चल रहा है और न पाठ्यक्रम की किताबें या शिक्षक ही सबकुछ उन्हें सिखा रहे हैं। वो इस व्यापक समाज में हैं। यह उनका भी समाज है और उसके बारे में हर हकीकत जानने का हक है उन्हें। फिर वो स्वीकारना, नकारना, सही, गलत, नैतिक -अनैतिक खुद से और अपनी जिम्मेदारी पर तय कर पाएंगे। हम इस सबसे वंचित रहे, हमें हमारे परिवारों, स्कूल और समाज ने ऐसी किताबें पढ़ने को नहीं दीं जिनसे हम इन सबके बारे में जान पाते। हमें सिर्फ एकतरह की बातें सुनने-पढ़ने और समझने को मिलीं और हम एक तरह के व्यक्ति बन गए। इस विविधता के बारे में बच्चों को शुरू से ही जानने का मौका दें। ताकि वे किसी किताब या सिनेमा को किसी के कहने पर अपने खिलाफ मानकर किसी भीड़ का हिस्सा बनकर उसकी खिलाफ़त करने की बजाए उसे जानने-समझने और स्वीकारने का साहस कर पाएं।

अनिल सिंह, पराग, भोपाल। 9993455492

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