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(एलईसी- 2019 बैच के प्रतिभागी नवनीत नीरव)
तेरह साल लगे मुझे अपनी तैयारी में। हायर एजुकेशन के बाद यह तो तय था कि डेवलपमेंट सेक्टर में ही काम करना है और घर में पढ़ने लिखने का माहौल था सो एजुकेशन का क्षेत्र महत्वपूर्ण जान पड़ता था। लेकिन एजुकेशन के बारे में समझ बस वही थी जो किताबों से मिली थी और जो खुद की शिक्षा की यात्रा में समझ आई थी। एक आम अभिभावक की तरह मैं भी शिक्षा को कक्षा की किताबों के जरिए, स्कूल के भीतर और परंपरागत तरीकों में ही देखता था।
2010 में पहली बार काम शुरू किया। ‘गली गली सिम सिम’ नामसे सेसामी वर्क्शाप ने बच्चों के लिए रीडिंग साइकिल का एक कार्यक्रम शुरू किया। एक बुनकर समुदाय के बच्चों के बीच एक कार्यक्रम चलाया जा रहा था जिससे मैं जुड़ा। यूएस ऐड के सहयोग से यह कोई 7-8 स्टेट में चलाया जा रहा था।
इसके बाद पंचायत, स्कूल और आंगनवाड़ी स्तर पर काम किया। यह सरकार के योजना विभाग का काम था इसमें स्कूल में ग्रेड एक और दो के बच्चों के साथ किताबों के ऑडियो सेट बनाकर काम किया जा रहा था। इस कार्यक्रम से जुड़कर मुझे समझ में आया कि रीडिंग कैसे काम करती है।
इस बीच मैनिज्मेन्ट की पढ़ाई की। 2013 में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की फेलोशिप से जुड़ा और दो साल तक राजस्थान के सिरोही जिले में स्कूलों में काम किया। यहाँ स्कूल प्रेक्टिसेज देखीं, लेसन प्लान समझे। प्राथमिक कक्षाओं में भाषा और गणित शिक्षण पर पूरा काम केंद्रित था। इस दौरान ईसीई के लिए शिक्षकों की ट्रेनिंग का काम देखा। पहली बार इन सर्विस टीचर्स ट्रेनिंग में लाइब्रेरी का इस्तेमाल होते देखा। यहीं प्रथम और एकलव्य जैसे प्रकाशनों के बारे में पता चला। चकमक और संदर्भ जैसी पत्रिकाएं देखीं।
एपीएफ के बाद 2015 में भारती फाउंडेशन के साथ जुड़ा। इसमें काम करते हुए राजस्थान के जोधपुर जिले की 7 स्कूलों में मुझे स्कूल प्रबंधन में मदद करना था। इसके अलावा भारती फाउंडेशन के अपने लर्निंग सेंटर थे। मुझे इन सेंटर्स के लिए किताबें चुनने का मौका मिला। यह एक बड़ा अनुभव का मौका रहा लेकिन किताबों की वैसी समझ न थी जो आज है, जो एलईसी से बनी है। लेकिन इस बहाने पहली बार खुद कुछ करने का मौका मिला। स्कूल प्रबंधन में प्रधान शिक्षक के साथ काम करना होता था। मुझे स्कूल में कोई 16-17 प्रोसेस पर काम करना होता था। तीन साल भारती फाउंडेशन में काम करने के बाद लगा अपने स्किल सेट थोड़े और दुरुस्त करने की जरूरत है। इस बीच 2016 में NGO Box में एलईसी का विज्ञापन देखा था। जानकारी ली तो लगा शायद यहीं से मेरा रास्ता बनेगा। साहित्य में रुचि थी इसलिए लाइब्रेरी के बारे में एक मोटी- मोटी समझ थी। इस कोर्स से जुडने का फैसला किया। 2018 में एलईसी में नामांकन हुआ। कोर्स शुरू हुआ और मेरा सफर भी साथ साथ। पहले कान्टैक्ट में सुशील शुक्ल को सुनने का मौका मिला। उनकी कुछ कविताएं पढ़ रखीं थी पर बाल साहित्य, कविताओं और कहानियों के बारे में उनकी बातें और समझ सुनकर लगा यह संसार बिल्कुल नया है।
धीरे-धीरे कोर्स के दौरान आलेखों को पढ़ने और समझने का सिलसिला शुरू हुआ तो शिक्षा और साहित्य के बारे में बनी बनाई धारणाएँ टूटने लगीं। बाल साहित्य में बचपन के प्रतिनिधित्व, विविध समुदायों के प्रतिनिधित्व और मुद्दों की गहरी परतों की समझ बनी। कोर्स के डिजाइन ने बहुत प्रभावित किया। ब्लेन्डेड मोड के बारे में सुना था पर एलईसी में उसका प्रभावी स्वरूप देख रहा था। डिस्टन्स पीरिएड में भी इतनी ही संजीदगी थी। हर समय कोर्स से जुड़ाव बना हुआ था। आलेखों पर समूह चर्चा, मूडल पर टॉपिक आधारित चर्चा, डायरी लेखन, सैद्धांतिक और प्रायोगिक असाइनमेंट सबकुछ बहुत सुनियोजित था।
लाइब्रेरी ऐक्टिविटी जो सिखाई गईं उनमें एक ताजगी थी, उनके उद्देश्य, प्रक्रिया और तैयारी पर खासा जोर था। किताबों का एक बेहतरीन और विविधता से भरा हुआ संकलन देखने को मिला। इस दौरान खूब किताबें पढ़ने को मिलीं। एकलव्य कैंपस में कान्टैक्ट होने के कारण ‘पिटारा’ में किताबों का खजाना एक अलग आकर्षण था। दिन खत्म होने के बाद रात में देर तक पिटारा में बैठकर बाल साहित्य पढ़ने का खूब लुत्फ उठाया।
किताबों का डिस्प्ले टूल मैंने यहीं सीखा। लाइब्रेरी में लिटरेचर से बच्चों का कनेक्ट कैसे बने यह समझ एलईसी से ही बनी। यहीं से मेरी दिशा बदली कि मुझे लाइब्रेरी एजुकेटर बनना है। कोर्स करने के बाद पराग के ही लाइब्रेरी प्रोग्राम से जुड़ गया और लाइब्रेरी मैनेजर की जिम्मेदारी संभाली। एलईसी से बच्चों की किताबों और लाइब्रेरी प्रक्रिया की जो समझ बनी वह इस जिम्मेदारी में बड़ी काम आई। यहाँ पराग में तीन साल तक एलईसी से बनी सीख का खूब इस्तेमाल किया। पराग के लाइब्रेरी प्रोग्राम के लिए 5 साल का महत्वाकांक्षी प्लान बनाया। इसमें एलईसी से बनी समझ का ही इस्तेमाल किया। लाइब्रेरी मैनिज्मन्ट के साथ ही लाइब्रेरी प्रैक्टिस पर लगातार समझ बनती गई। बाल साहित्य से इन्हीं दिनों जुड़ाव बनता गया। कर्नाटक, उत्तराखंड, गुजरात, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के लाइब्रेरी प्रोग्राम में पराग के लाइब्रेरी मैनेजर की हैसियत से इनपुट दे पाया। इन स्टेटस में लाइब्रेरी प्रोग्राम से जुड़े फेसिलिटेटर्स के लिए कपैसिटी बिल्डिंग की जरूरतों का आकलन कर पाया और इनपुटस का प्लान बना सका। राजस्थान में चल रहे राज्य स्तरीय स्कूल पुस्तकालय संवर्धन परियोजना (RSLPP) के लिए लाइब्रेरी आकलन के संकेतक बनाने और मास्टर ट्रेनर्स सहित जिलों में लाइब्रेरी शिक्षकों की ट्रेनिंग में प्रोफेशनल डेवलपमेंट टीम की तरफ से बतौर रिसोर्स परसन सिर्फ इसलिए ही शामिल हो पाया कि एलईसी ने लाइब्रेरी एजुकेटर के रूप में मेरी तैयारी कराने में बहुत मदद की। इस दौरान अलग अलग राज्यों के कोई तीन- चार हजार लाइब्रेरी शिक्षकों तक पहुँच पाया। किताबों के चयन, किताबों से एंगेज कर पाने के तौर-तरीके, रीडर के पर्सपेक्टिव आदि की समझ बनी।
लॉकडाउन के दौरान आरएससीईआरटी की पहल पर सीएमएफ के साथ मिलकर राजस्थान में बच्चों के लिए साप्ताहिक ई-बुलेटिन ‘हवामहल’ शुरू किया। इसमें कंटेन्ट के चुनाव और उनकी प्रस्तुति में भी एलईसी के दौरान सीखा हुआ हुनर काम आया। अब तक मैंने हवामहल के 100 अंकों में सहयोग किया है। इसी तरह उत्तरप्रदेश में भी ‘लाइब्रेरी खिड़की’ नाम से लाइब्रेरी बुलेटिन शुरू किया और उसके 40 अंक बनाए और प्रसारित किये। राजस्थान में बाली जिले की होम लाइब्रेरी में प्रबंधन और संचालन संबंधी इनपुटस दिए। पराग में तीन साल एलईसी से बनी क्षमता का बेहतर इस्तेमाल के बाद आज मैं रूम टु रीड के साथ जुड़ा हुआ हूँ। यह संभावना भी एलईसी जैसे गंभीर कोर्स और पराग में काम करने का अनुभव होने के कारण बनी है, इसे मैं दिल की गहराइयों से स्वीकारता हूँ। बाल साहित्य और लाइब्रेरी के काम को समझने और संभालने का एक कोफिडेंस आया है।
पहले मैं अपने आपको सिर्फ लाइब्रेरी मैनेजर ही कह पाता था और यही मानता भी था पर एलईसी से बनी समझ और पराग के लाइब्रेरी प्रोग्राम में उस समझ के सार्थक इस्तेमाल के बाद मैं अपने आपको लाइब्रेरी एजुकेटर कह पाया। अब मैं खुद को लाइब्रेरी मैनेजर की बजाए लाइब्रेरी एजुकेटर कहता हूँ। और अपनी यही पहचान सोशल सेक्टर में प्रयोग करता हूँ। एलईसी ने बाल साहित्य और पुस्तकालय के बारे में न सिर्फ मेरा नजरिया बनाया बल्कि लाइब्रेरी एजुकेटर के रूप में मेरी पहचान भी बनाई है।
(As told to Anil Singh)
एलईसी के बाद खुला बाल साहित्य का संसार
कुँवर सिंह ने छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा जिले के खोडरी खोंसरा गाँव में रहते हुए 2007 में बारहवीं पास की। फिर स्थानीय शिक्षक कृष्णानन्द पांडे ने रायपुर के घासीदास महाविद्यालय जाने के लिए कहा।…