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बिक्सू’ आवासीय विद्यालय में पढ़ने वाले झारखंड के एक ग्रामीण बालक की कहानी है। बिक्सू पढ़ते हुए पाठक संवेदनात्मक और बौद्धिक स्तर पर समृद्ध होंगे ऐसा कई कारणों से लगता है। बिक्सू की कहानी में एक तरफ अगर स्थानीय रंग गहरे हैं तो दूसरी तरफ यह कथा सार्वभौमिक कथाभूमि पर भी एक लकीर खींचती चलती है। यह कथा जितना बाहर चलती है उतना ही भीतर भी। मुख्य पात्र की स्मृतियों और मानसिक द्वंद्वों को भाषा, चित्र और ले ऑउट डिजाइन सभी स्तरों पर अभिव्यक्त करने की कोशिश की गई है।
यह कहानियाँ किशोर-दृष्टि से बुनी गयी हैं जहाँ साधारण घटना भी अर्थवान बन जाती है, जैसे ट्रेन की यात्रा या बगीचे में अमरूदों की चोरी जो जीवन के बड़े मूल्यों की ओर संकेत करती हैं। इनकी विशेषता यह है कि यहाँ कथानक, पात्र और भाषा सब आस पास के जीवन के हैं। और हर कहानी हमें बेहतर इन्सान बनाती है, हालाकि ये कहीं भी सायास उपदेशात्मक नहीं हैं। कहानियाँ मज़ेदार भी हैं और अंत तक ध्यान बाँधे रखती हैं। चित्र स्थितियों को उभारते हैं और रंग अलग से ध्यान नहीं खींचते।
यह एक भिन्न कोटि की किताब है जहाँ कथा-संवाद की शैली में कोई अप्रचलित बात कही जाती है और वाद-विवाद के लिए प्रेरित किया जाता है। मासूम से लगने वाले सवाल पूरी व्यवस्था को ही कठघरे में खड़ा करते हैं। पर ये बहुत मनोरंजक भी हैं, कई बार चुटकुलों जैसे। इन्हें पढ़ते हुए उसे बच्चे की याद आ सकती है जिसने पहली बार कहा था कि राजा नंगा है। दिये गये रेखांकन भी कथानक को सजीव बनाते हैं जो लगातार स्याह कूँची से बने हैं।
इन कहानियों में वर्णित चरित्र प्रायः किन्ही विनाशकारी स्थितियों से गुजरते हुए दिखते हैं। ये कहानियाँ जितना बाहरी उथल-पुथल को व्यक्त करती हैं, उतना ही चरित्रों की भीतरी मनोदशाओं, स्वप्नों, आकांक्षाओं और आशंकाओं को भी व्यक्त करती हैं। शिल्प के स्तर पर अकसर ये कहानियाँ यथार्थवादी शिल्प में शुरू होती हैं, लेकिन अकसर यथार्थवादी शिल्प का अतिक्रमण कर फंतासी में चली जाती हैं। प्रत्येक कहानी के कुछ महत्त्वपूर्ण दृश्यात्मक पहलुओं को चित्रांकन के माध्यम से उजागर किया गया है।
इस संग्रह की एक यादगार कहानी है बंदरों की जल-समाधि जो मनुष्य की विकास की दौड़ में मारे गए हैं। और उनकी मृत्यु को एक बच्चे की दृष्टि से पाठक को महसूस करवाना लेखक से परिपक्वता की अपेक्षा करता है। इस किताब में ऐसा लगता है कि हर कहानी के केंद्र में जैसे लेखक का अपना ही बाल-रूपी किरदार हो। कस्बाती और ग्रामीण जीवन के जीवंत विवरण एकदम आत्मकथात्मक गल्प की विधा में धीरे-धीरे खुलते हैं और पाठक तो एक तरह का काव्य-सुख प्रदान करते हैं।
इस किताब में तीन कहानियाँ हैं और पांच कथेतर गद्य हैं। ये गद्य मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियों से जुड़ी गतिविधियों पर केंद्रित हैं – देखना, सुनना, स्पर्श, गन्ध और स्वाद। देखना, छूना आदि महज जैविक गतिविधियाँ नहीं हैं, बल्कि मानवीय गतिविधियाँ भी हैं। इन जैविक और मानवीय गतिविधियों पर इत्मीनान से रस लेकर विचार किया गया है। किताब में शामिल तीनों कहानियों में पारम्परिक शैली की कथाओं जैसा कथारस है, लेकिन ये कहानियाँ जीवन की कुछ गहरे अस्तित्वगत उलझनों को भी सामने लाती हैं।
यह छोटी-छोटी कविताओं का संग्रह है जिन्हें एक ही कवि ने लिखा है। यह बहुत प्यारी कविताओं का संग्रह है जो आस-पास के विषयों को आधार बनाकर रची गई हैं। छंदोबद्ध हैं और लय इतनी सरल कि तुरंत कंठस्थ हो जाएँ। ऐसी निर्दोष कविताएँ कम देखने को मिलती हैं। चित्रांकन भी प्रभावकारी है और कविता की संगत करता है। इन कविताओं की एक खूबी उनकी भाषा का कौतुक भी है जो कल्पना को नयी उड़ान देता है।
नए अनुभवों से गुजरने के लिए और नई-नई खोजों के लिए व्यक्ति का स्वतंत्र होना जरूरी है। यात्रा की बेहतर कहानियाँ अप्रत्यक्ष रूप से ‘स्वतंत्रता’ को एक मूल्य के तौर पर प्रतिष्ठित करती हैं। इस दृष्टि से यह किताब बहुत महत्त्वपूर्ण है। आमतौर पर औरतें जब यात्रा पर निकलती हैं तो परिवार के साथ निकलती हैं जिसमें पुरुष होते हैं और पुरुष ही यात्रा का नेतृत्व करते हैं। इस किताब में जिन यात्रियों का विवरण है वे बिना किसी पुरुष को साथ लिए इस यात्रा पर निकल जाती हैं। इस तरह यह हौसला देने वाली और इस वर्ष की महत्त्वपूर्ण किताब है।