Loading...

चित्रों से बनना शुरू होता है
निजी अनुभवों की दुनिया तक का पुल

बात 2018 की है जब मैं एल ई सी का कोर्स कर रहा था। काम के सिलसिले में अक्सर बहराइच की प्राथमिक शालाओं में मेरा जाना होता था। कोर्स का एक असाइनमेंट करते समय मुझे बच्चों की पठन प्रक्रिया का अवलोकन करना था। बच्चे कैसे पढ़ते हैं? पढ़ते समय क्या-क्या करते हैं? जो अक्षर नहीं पढ़ रहे होते क्या वह भी पुस्तकालय में कुछ कर रहे होते हैं? इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हुए, मैंने तीन दिन तक अलग-अलग कक्षा के बच्चों का अवलोकन किया।

पहले ही दिन, पुस्तकालय में कुछ बच्चे मिलकर एक किताब देख रहे थे। उस किताब में साँप का चित्र बना हुआ है, जिस पर वो तीनों बच्चे बात कर रहे थे- “कितना लम्बा साँप है, चौड़े फन वाला है, यह तो पानी वाला साँप है।” फिर तीनों बच्चों ने अपने हाथ से साँप की लम्बाई को नापा, फिर साँप के काटने पर क्या-क्या करते है इस पर तीनों बच्चों ने अपने-अपने अनुभवों को साझा किया। पहले बच्चे ने कहा कि जहाँ साँप काटता है वहाँ पर धागा बांध देना चाहिए, दूसरे बच्चे ने कहा कि साँप के काटने पर नीम के पत्ते खिलाना चाहिए- अगर कड़वे लगते है, तो ज़हर नहीं चढ़ता है और अगर मीठे लगते हैं, तो मतलब ज़हर चढ़ गया है। तीसरे बच्चे ने कहा कि डॉक्टर सुई से ज़हर को बाहर निकाल देता है।

एक चित्र पर इतनी बातें! क्या यह सब किताब में लिखा हुआ था- नहीं। क्या यह बातचीत किताब में लिखित टेक्स्ट के बारे में थी – नहीं। क्या उस चित्र में इतना सब दिख रहा था- बिल्कुल नहीं। इन प्रश्नों को समझने के लिए, मैं पुस्तकालय में कुछ और बच्चों के बीच गया।

11-12 वर्ष के बच्चों के एक समूह में, कुछ बच्चे ऐसे थे जो किताब को पढ़ नहीं पा रहे थे। उनमें से 4 बच्चों ने अपनी किताब को बदला, ज्यादा चित्र वाली किताब को लिया। किताब में बरसात के मौसम के चित्र थे। चित्रों को देखकर उनमें बातचीत शुरू हो गई- “जब बारिश होती है तो हमारे गाँव में भी पानी भर जाता है, बाढ़ आती है तो मोटर वाली नाव आती है। “दूसरा बच्चा बोला, नाव नहीं होती उसे मोटर बोट कहते है।” तीसरे बच्चे ने कहा- “फिर तो हम बोट में बैठकर मछली पकड़ सकते है।” “अरे नहीं, उसमे बहुत लोग होते है तो मछली कैसे पकड़ सकते है?” एक बच्चें ने कहा- “पिछले साल बारिश में मेरे घर की झोपड़ी गिर गई थी, मेरे बाबा बहुत रो रहे थे।”

यहाँ मैंने देखा कि बच्चे अक्षर और शब्द नहीं पढ़ पा रहे थे, लेकिन किताब के चित्रों को अपने पूर्वज्ञान और अनुभवों से जोड़कर देख रहे थे और उनके बीच चर्चा शुरू भी हो रही थी। किताब को पढ़ना केवल उसमें छपे टेक्स्ट को पढ़ने तक सीमित नहीं रह गया था। न ही चित्र देखने तक। बल्कि उन चित्रों से उनकी निजी अनुभवों की दुनिया तक का एक पुल बन रहा था!

उपरोक्त अनुभव को मैंने डेनिस वान स्टॉकर के पढ़ने के नज़रिये से जोड़ कर देखा। एलईसी की कोर्सबुक में, डेनिस स्टॉकर द्वारा किसी कार्यशाला के दौरान दिया गया व्याख्यान हमने पढ़ा था। वह कहती हैं, जब कोई पाठक किसी किताब को पढ़ता है तो वो सिर्फ टेक्स्ट को ही नहीं पढ़ता है, पढ़ना सीखने का अर्थ सिर्फ किताब में लिखित टेक्स्ट को पढ़ लेने से नहीं है, यानि कि पढ़ना सीखने का अर्थ सिर्फ डिकोडिंग से नहीं है। आगे वह कहती है कि ‘पढ़ने’ को किसी यांत्रिक प्रक्रिया या एक सरल तकनीकी कौशल तक सीमित नहीं किया जा सकता। अगर हम कहें कि अक्षर या शब्द पढ़ना सीख लेने से पढ़ना आ जाता है, तो ऐसा नहीं है। पढ़ते समय दो प्रक्रिया साथ ही साथ चल रही होती हैं: – एक तो जो लिखा हुआ है उसको पढ़ना; दूसरी प्रक्रिया में उस पढे हुए टेक्स्ट को अपने अनुभव से जोड़ना शुरू करना। अपने अनुभव – जो प्रायः देखने, सुनने, अवलोकन करने, सम्प्रेषण करने से बनते हैं – उनकी भी पढ़ने में भूमिका होती है। शायद इसीलिए वे कहती हैं कि देखना भी पढ़ना है, सुनना भी पढ़ना है और सम्प्रेषण भी पढ़ना है।

इन बच्चों को देखकर इस बात की पुष्टि तो हो रही थी।

इस असाइनमेंट के लिए मैंने उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के प्राथमिक विद्यालय रमवापुर का चयन किया था। स्कूल में 117 बच्चों का नामाकंन था, स्कूल में पढने वाले बच्चों की उम्र 6-14 वर्ष थी। स्कूल में आने वाले ज्यादातर बच्चे अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के थे, जोकि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समुदाय के थे।

एक दिन मैंने कक्षा 5 के लगभग 15 बच्चों को लाइब्रेरी में बुलाया। मैंने देखा कि जो बच्चे पढ़ना जानते थे, उन्होंने अपनी पसंद की उन किताबों का चयन किया जिसमें ज्यादा लिखा हुआ था, बच्चे धारा प्रवाह पढ़ रहे थे। जो बच्चे उम्र में बड़े थे, लेकिन प्रवाह में नहीं पढ़ पा रहे थे उन्होंने किताबों के चित्रों को देखकर पूरी किताब पढ़ी। सभी बच्चों ने किताब के कवर पेज को देखकर किताबों का चयन किया। बच्चों ने अपने परिवेश से सम्बन्धित चित्रों वाली किताबों को ज्यादा पसंद किया। जंगल और जानवरों वाली किताबें बच्चों ने खूब पसंद की और चित्रों को देखकर बच्चों की जो आपस में बातचीत थी, वो किसी का भी ध्यान उनकी तरफ आकर्षित कर सकती थी। इसके अलावा मुझे एक मजेदार चीज दखाई दी कि बालगीत/ कविता की किताब को पढ़ने में बच्चों की रूचि ज्यादा दिखी। इसका कारण मुझे ये भी लगा कि बालगीत में लय होती है, जिसमें तीन-चार बच्चे मिलकर पढ़ते है और एक लयबद्धता बन जाती है, जिसमें बच्चों को खूब मजा आता है। उपरोक्त पूरी प्रक्रिया में मैंने पाया कि बच्चों को अपनी किताब को चुनने की आज़ादी, बच्चों को अपने तरीकों से पढ़ने की आज़ादी और उन किताबों पर बेबाक़ी से अपने तरीकों से बातचीत करने की आज़ादी, पढ़ने की इस पूरी प्रक्रिया को बेहद निजी बना देती है। यही वो क्षण था जब बच्चे अपने-अपने तरीकों से पढ़ने का मजा ले रहे थे और पढ़ना बच्चों के लिए आनंददायक बन पाया।

इसी दौरान, कक्षा 1 व 2 के 18 बच्चे लाइब्रेरी में थे। मैंने अपने आपको शिक्षक की भूमिका में रखकर अवलोकन करने का प्रयास किया। ज़्यादातार बच्चों ने बहुत सारी किताबों को उलट-पलट कर अपनी पसंद की किताबों को चुना और चित्रों को देखने लगे। वहीं 5 बच्चों ने किताबों को छुआ ही नहीं। कुछ देर के बाद फिर मैंने “लालू और लाल पतंग” की कहानी बच्चों को सुनाई। कहानी सुनाते हुए मुझे लग गया की बच्चे कहानी से जुड़ गये है। फिर मैंने पतंग पर बात की जिस पर बच्चों ने अपने अनुभवों को साझा करना शुरू कर दिया। जिन 5 बच्चों ने किताब को छुआ नहीं था, अब वो चर्चा का हिस्सा बन गये थे। धीरे-धीरे सभी बच्चे जुड़ गये थे, फिर मैंने उनको किताबें लाकर दी। मैंने देखा कि पाँचों बच्चों ने किताबों के चित्रों को देखना शुरू किया। थोड़ी ही देर में वे मेरे पास आकर बैठ गये और चित्र दिखा कर मुझ से खूब बातें करने लगे। कुछ ने मुझसे और दूसरी किताबें लाकर देने के लिए कहा। 5 मिनट बाद मैंने देखा कि वे सभी बच्चे दो-दो व तीन-तीन के समूह में बैठकर अच्छी चर्चा की शुरुआत करने लगे थे।

इससे मुझे लगा कि पढ़ने और किताबों में रुचि पैदा करने के लिए जरूरी है कि उनके अनुभवों को वहाँ जगह मिले, जिसके अभाव में पढ़ना एक जटिल और बोझिल प्रक्रिया बनकर रह जाती है। इसमें शिक्षक मददगार के रूप में होना चाहिए। यदि बच्चा शिक्षक को कुछ दिखाता है तो शिक्षक को भी उतनी ही उत्सुकता के साथ अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। इसके लिए हमारे शिक्षको को मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा। यदि बच्चे कहानी पढ़ते समय अपने अनुभव उसमें जोड़ते हैं और यदि शिक्षक उन्हें यह मौका दे, तो पढ़ने में उनकी रुचि तेज़ी से बढ़ जाती है। अगर शिक्षक बच्चों द्वारा दिखाई जा रही चीजों पर प्रतिक्रिया नहीं देते है, तो बच्चों में कुछ भी दिखाने बताने की चाह कमजोर पड़ जाती है। इससे भी ज्यादा, उनका भरोसा और अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता पर विश्वास, दोनों ही कमजोर पड़ने लगते है।

डेनिस स्टॉकर के व्याख्यान और उपरोक्त घटनाओं के आधार पर, मैं निष्कर्ष के तौर पर कहना चाहता हूँ कि देखते ही देखते पढ़ना बच्चे का एक “निजी अनुभव” बनता जाता है- जिस तरह वे किताबों का चयन करते हैं, जैसे चित्रों को देखकर उन्हें अपने निजी अनुभव से जोड़ पाते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि पढ़ना सीखना सिर्फ अक्षरों को पहचानना और उनके पढ़ने से कहीं ज्यादा है। तस्वीरों को पढ़ने और समझ पाने की क्षमता, सुनी या पढ़ी हुई कहानियों को समेकित कर पाने की क्षमता और जो पढ़ा है या कहीं देखा और सुना है, उसके बारे में दूसरों के साथ बातचीत करने की क्षमता अगर विकसित हो जाती है, तो मेरी नजर में वही अर्थपूर्ण पढ़ना है। सटीक तौर पर कहूँ तो हमें ऐसे स्कूली परिवेश बनाने होंगे जहाँ बच्चें विभिन्न आयामों के माध्यम से सकारात्मक पठन का अनुभव प्राप्त कर सकें। अगर स्कूलों में ऐसे अवसर बच्चों को मिलें तो वे अच्छे पाठक बन सकते हैं।

अमित कुमार
टाटा ट्रस्टस (बहराइच)
उत्तर प्रदेश

‘जीवन चक्र’ पर बात करतीं दो चित्र किताबें

जीव जगत हमेशा से लुभावना और रहस्यमयी लगता है। जीवन-सृजन एक जटिल प्रक्रिया भी। बच्चों के लिए इस विषय पर छिटपुट किताबें ही प्रकाशित हैं…

Navnit Nirav Parag Reads 13 August 2021

How to Raise Children as Readers

How to Raise Children as Readers

The Parag Initiative supports stories and books in a range of languages, themes, age groups, and genres with the goal of ensuring that children have…

Mini Shrinivasan Parag Reads 5 August 2021