Loading...

“जामलो चलती गई” हिन्दी अनुवाद के मार्फत 2021 में आई एक ऐसी किताब है, जिसकी चर्चा दो वजहों से जरूरी है। एक तो यह ऐसे मसले को रखती है जो बच्चों के साहित्य की दृष्टि से तथाकथित वर्जित मसला रहा आया है; और दूसरा यह कि किताब इस विषय को जिस जिम्मेदारी, कलात्मकता और संजीदगी से रखती है उससे बाल साहित्य के क्षेत्र में एक जबरदस्त उम्मीद बंधती है। बाल साहित्य के प्रकाशन में अभी इन दिनों जिस तरह का कमाल हो रहा है उनमें यह किताब एक कदम और आगे की बात है। पराग के सहयोग से एकलव्य द्वारा प्रकाशित इस किताब ने बाल साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में नया विमर्श शुरू किया है।

जामलो एक डाक्यूमेंट्री का विषय है उसे पन्ने दर पन्ने जिस तरह से पेश किया गया है वह किताब में सिनेमाई क्राफ्ट का एक बहुत ही बढ़िया उदाहरण बनकर सामने आया है। इसकी लेखक समीना एक फिल्ममेकर हैं और इस किताब में उनकी रचनात्मकता हर पेज पर साफ दिखाई देती है। चित्रकार तारिक अज़ीज़ उनकी इस रचनात्मकता को बड़ी कसावट के साथ पेज पर उतारते चले गए हैं। कहन के साथ यह चित्रांकन की ही ताकत है जो उसे अनुभूति के ऊंचे से ऊंचे स्तर पर ले जाती है।

पहले पेज पर एक कैलेंडर के पेज पर कैमरा फोकस करता है जिसमें 24 से 30 तक की तारीखों पर लाल कट्टस लगा है। यह संकेत इस बात का है कि दिन गिने जा रहे हैं; एक खाली धूसर दीवार पर अकेला टंगा कैलेंडर का यह चित्र एक इंतजार और सपाट सी उदासी बयां करता है।

साथ ही एक पंक्ति लिखी है ‘आज लॉकडाउन का सातवाँ दिन है’। 24 मार्च 2020 को घोषित इस देशव्यापी लॉकडाउन को बच्चों- बड़ों, अमीरों- गरीबों, शहरी और ग्रामीणों सबने अपनी अपनी तरह से अनुभव किया। लेकिन कैलेंडर इसे किसी महीने और साल से नहीं बांधता और ऐसा करके वह इसे एक ऐसा अनुभव करार देता है जो समय से परे है।

सामने के ही दूसरे पेज पर एक बड़ी सी आधी खुली खिड़की का चित्र है। जाहिर है मार्च का महीना है, बाहर धूप तेज है, यह आधी खुली खिड़की इस बात को साफ करती है कि धूप और गर्मी का संतुलित डोज़ ही घर में आने देना है।

इसी में आगे लिखा है “सब कह रहे हैं कि आसमान फिर नीला हो गया है”। इस लॉकडाउन ने बहुतों को यह सुकून दिया कि वाहनों की आवाजाही बंद है, फैक्टरियाँ- कारखाने बंद हैं, धुआँ और गर्द बंद है इसलिए आसमान साफ है। यह कुछेक के लिए लॉकडाउन का उजला पक्ष है। तालाबंदी की शांति है। घर के अंदर उस कमरे में एक स्थिरता है। यह कहानी का बैकड्रॉप है।

अगला ही पेज सड़क पर अकेली चलती एक बच्ची का है “जामलो चल पड़ी है”। चेहरे पर मासूमियत, चिंता और संकल्प का मिला- जुला भाव उस सामान्य से चित्र मे साफ देखा जा सकता है।

गिने जा रहे दिनों और उजले नीले आसमान की पृष्ठभूमि में एक सुनसान वीरान पड़ी सड़क पर चिलचिलाती धूप में एक बच्ची नितांत अकेली चल पड़ी है। दूर दूर तक पेड़ पौधों की छाँव तक नहीं है जबकि ठीक पहले पन्ने में आधी खुली खिड़की के पास ही घर के कमरे में एक हरा भरा गमलाई पौधा नीले उजले आसमान के साथ संगत बिठा रहा है। पर पैदल चलती जामलो के लिए धूसर लंबी सड़क है जिसपर मील का पत्थर संगत बिठा रहा है। यह एक ऐसे सफर की शुरुआत है जिसके बारे में किसीको कुछ नहीं पता। लिखा है “नरियापुर 10”। लेकिन यह नरियापुर है कहाँ, मुकाम कहाँ है और मुकाम तक पहुँचने के लिए अभी और कितना चलना है कुछ नहीं पता।

इस सफर की गंभीरता बढ़ाती हुई पंक्तियाँ हैं “जामलो पसीना पोंछती है और मिर्च की थैली को एक कंधे से दूसरे कंधे पर टांग लेती है”। मानो कंधे बदलते रहने से बोझ का एहसास भी बदलता रहेगा। शरीर पर उतना ही बोझ रहेगा लेकिन कंधे उस बोझ के एहसास को बदलते रहेंगे। यह एक छद्म राहत ही है। चित्र और पंक्तियाँ किसी सीन में एक गति पैदा करते हैं और पाठक को लगता है जैसे अभी अभी जामलो ने सचमुच ऐसा किया।

दृश्य बदलते हैं। पंक्तियाँ है “अम्मा लैपटॉप पर पैदल चलते लोगों का एक विडिओ देख रही है”। यह दृश्य कमरे में बैठकर विडिओ पर नियंत्रित ढंग से देखा जा रहा है। टेबल पर किताबें हैं, फ्लॉवर पॉट में एक हरा पौधा खिला है। माउस पर हाथ है। एक फ्रेम तैयार है जिसे अगले दृश्य में इस्तेमाल होना है।

तारा एक बच्ची है जो अचानक से उस कमरे में आई है परदे से झाँकती हुई- “वह लैपटॉप पर गठरियाँ उठाए आदमी औरतों और थके- हारे, धूप में झुलसे बच्चों को देखती है”।

“तारा को देखते ही अम्मा लैपटॉप बंद कर देती है। पैदल चलते लोग एक झटके में गायब हो जाते हैं”। कितनी नियंत्रित परिस्थिति है। तारा एक ऐसा दृश्य न देखे जो उसके मन को व्यथित करे, आकुल करे। एक ऐसी हकीकत जो सड़क पर घटित हो रही है, पर उसका विडिओ देखा जाना भी प्रोटेक्टेड है। एक अप्रिय विडिओ से तारा का सामना न हो, इसलिए माउस पर हाथ है, जब चाहे उस दृश्य को गायब कर सकते हैं।

पंक्तियाँ हैं “पैदल चलते लोग एक झटके से गायब हो जाते हैं” या गायब कर दिए जाते हैं। एक हकीकत पर लैपटॉप की ब्लैक स्क्रीन का पर्दा डाल दिया जाता है। अब सबकुछ शांत है। कोई अप्रियता नहीं है, कोई आकुलता नहीं है, कोई सवाल भी नहीं है जोकि हो सकता था। अब एक घर के अंदर तारा सुकून में है। अम्मा ने लैपटॉप बंद कर दिया है। सड़क की बेचैनी अब लैपटॉप पर भी नहीं है।

अम्मा पूंछती है “नाश्ते मे डोसा खाओगी ?” नाश्ते की बात हो रही। एक रिलेक्स्ड दिन है। जिसमें लैपटॉप पर विडिओ देखने न देखने से लेकर नाश्ते के विकल्पों तक का सरल सहज विस्तार है।

लेकिन अगला ही फ्रेम जामलो के चेहरे का है। सड़क किनारे की गुमटी पर एक तीन फुट की बच्ची पाँच फुट ऊंचे रखे डोसे के तवे पर यूं देख रही है जैसे यह देखा जाना पहली बार घटित हुआ है। यह दृश्य भी पहुँच से दूर था, डोसा तो दूर है ही। एड़ियों के बल ऊंचा होकर बड़ी बड़ी आँखों से पकते हुए डोसे को देखती जामलो का चित्र काफी कुछ बयां कर रहा है।

“गुमटी पर आदमी डोसा बना रहा है, डोसा खदबदाने लगता है, जामलो देखती है”। यह खदबदाहट जितनी तवे पर जान पड़ती है उतनी ही जामलो के पेट में भी महसूस की जा सकती है, इस बारे में बिना एक शब्द कहे। सिर्फ जामलो के इस तरह देखने भर से। यह सिनेमाई क्राफ्ट की ताकत है।

“मील के पत्थर पर लिखा है तड़वई 15”। जबकि इसके पहले मील के पत्थर पर लिखा था “नरियापुर 10”। तो क्या नरियापुर का एक छोटा लक्ष्य पार कर अब एक बड़ा लक्ष्य सामने खड़ा है? कहाँ है नरियापुर, कहाँ है तड़वई ? किसी को कुछ नहीं पता। पर दूरी बढ़ती जाती है। आगे एक और मील का पत्थर है जिसपर लिखा है “उसूर 15”। तो क्या मुकाम लगातार दूर होता जा रहा है। इस बारे में किताब कुछ नहीं बताती, वह मील के पत्थर पर लिखी संख्या से इशारा भर करती है। यह सिनेमाई क्राफ्ट का कमाल है।

मार्च की चिलचिलाती धूप में सड़क झिलमिला रही है। “जामलो को आकृतियाँ लहराती हुईं दिखती हैं”। यह मृग मरीचिका है। जामलो की नजर में यह हरेली के त्योहार का भ्रम है, जिसमें लोग नाच गा रहे हैं, लड्डू खा रहे हैं। यह जीवन की स्मृतियाँ हैं। अकेलेपन, बेबसी, भूख- प्यास और अनिश्चितता की चिंता के बीच दिल को बहलाने वाला एक खयाल। हकीकत और भरम का कुछ घालमेल सा है, पर कुछ ही पल के लिए।

“जामलो पलक झपकाती है” जैसे वह दो पल के उस भरम को झटक देना चाहती है और हकीकत का सामना करने को तैयार होती है।

“एक झंडेवाली कार सड़क पर फर्राटे से निकल जाती है”। यह प्रतीक है गति का, शासन का, तत्परता का। जिसका जामलो के लिए कोई अभिप्राय नहीं; वह एक तेज दृश्य की तरह भर है जो बस गुजर जाता है।

“सड़क अभी भी लंबी है लोग अभी भी चल रहे हैं”। लोग अभी कितने दिनों तक और चलते रहेंगे किसी को कुछ नहीं पता। जामलो को तो और भी नहीं।

पक्तियाँ हैं “जामलो अपनी पानी की बोतल निकालती है, जो खाली होने वाली है”। अगले ही पेज पर पंक्तियाँ कहती हैं “आमिर फ्रिज में से बॉटल निकालकर गिलास में पानी भरता है”। एक वाक्य और एक दृश्य के जुड़ाव में दूसरा वाक्य और दृश्य इस तरह संगत बिठाते हैं जैसे पेज दर पेज कहानी के भीतर ही कहन की कोई होड़ लगी हो। यह सिनेमाई क्राफ्ट है। ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं। एक तरफ के पन्ने में सड़क पर जामलो चल रही है दूसरी तरफ घर में आमिर की ऑनलाइन क्लास चल रही है। “आवाजें गड्ड मड्ड हो जाती हैं और कनेक्शन टूट जाता है” अगले पेज में “जामलो की चप्पल टूट जाती है”। एक तरफ इंटरनेट के कनेक्शन टूटने का रंज है और यह टूटना एक राहत भी है, पर दूसरी तरफ जामलो की चप्पल टूटना, तकलीफों का कहर टूटने जैसा है। इस कठिन सफर में अगर उसके पास कोई साधन रहा है तो वह चप्पल ही है, उसका टूटना एक हौसले के टूटने जैसा है।

पंक्तियाँ हैं “वह थक गई है, थोड़ी आराम करना चाहती है। वह साल के पेड़ों के नीचे लेट जाती है”।

कौन नहीं जानता वह थक गई है उसे आराम की जरूरत है, लेकिन ये पंक्तियाँ जिस तरह से इस बात का बयान करती हैं वह कुछ और इशारे की तरह आती हैं। एक आशंका सी घेर लेती है। यह एक सिनेमाई क्राफ्ट की झलक देता है।

“साल के ऊंचे- ऊंचे पेड़ सिपाहियों की तरह तनकर खड़े हैं”। पेड़ सिपाही बन गए हैं। पिछले तीन दिन रास्तों में तनकर खड़े सिपाहियों और बार बार रोकते, मना करते, डांटते फटकारते सिपाहियों की आकृतियों का लेटी हुई जामलो के आसपास तनकर खड़े होना स्मृतियों का धुंधलापन है।

“तीन दिन तक लगातार चलने के बाद सीधे खड़े रहना मुश्किल है” जामलो लेट गई है।

गुजरते हुए लोगों की बातें कान में पड़ती हैं – “करोना जान ले लेता है। पर भईया भूख भी तो ले लेती है”। गुजरते लोगों के अपने सन्दर्भ हैं, उसमें ही जामलो का सन्दर्भ छुपा हुआ है। स्मृतियों की फिल्म चल रही है। “बीजापुर में कहीं 600 साल पुराना पेड़ है। पुष्पा दीदी ने बताया था। कितना बूढ़ा हो गया होगा”……….। कुछ धुंधला सा याद आ रहा है।

“एक पीली पत्ती उसके चेहरे पर गिरती है”। एक पीली निर्जीव पत्ती गिर जाती है। ठीक जामलो के चेहरे पर।

“जामलो आंखे मूँद लेती है”।

स्मृतियों की फिल्म चल रही है। माँ बापू उसे देखकर खुश हो रहे हैं। एक थैली मिर्च कमाकर, कितना चलकर वह उन तक पहुंची है। जैसे कोई सपना चल रहा है। आंखे मूँदे हुए जामलो, एक पीली पत्ती की तरह जमीन पर पड़ी है।
“फिर सुबह होती है। तारा, राहुल और आमिर नींद से जागते हैं”।

ऑनलाइन स्कूल का एक और दिन, लॉकडाउन पाबंदियों का एक और दिन, एक दिन जब जामलो अभी रास्ते पर ही है।

एक पूरे पेज पर पड़ी है जामलो की टूटी चप्पल और एक पीली पत्ती।

“आसमान अभी भी नीला है, रास्ता अभी भी लंबा है, लोग अभी भी चल रहे हैं”। पर जामलो अब चित्र में नहीं है। उसकी जगह है पूरे एक पेज पर एक टूटी चप्पल और एक पीली पत्ती। यह कमाल है सिनेमाई क्राफ्ट का जो इतनी बारीकी से और इतनी संजीदगी से इस बात को रख पाता है कि अब मील के पत्थर पर कितनी संख्या लिखी है इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। झोपड़ी के दरवाजे पर जामलों की राह ताकते माँ बापू और दूसरे पेज पर कहीं बहुत दूर पड़ी टूटी चप्पल और उसके पास पड़ी निर्जीव पीली पत्ती जो कह पाते हैं वह किन्हीं पंक्तियों में कहा जा सकना बड़ा मुश्किल था। समीना और तारिक ने बड़ी धीरज से निभाया है इसे।

बाल साहित्य ये मौका बना रहा है कि कहानी और चित्र की ये जुगलबंदी एक किताब की प्रस्तुति को इतने ऊंचे स्तर पर ले जा सके। लॉकडाउन के कैनवास में जामलो की कहानी पूरी होते हुए भी अधूरी है। शब्दों की किफायत और अर्थपूर्ण चित्र इस अधूरेपन की बेचैनी को और ज्यादा गहरा बनाते हैं।

अनिल सिंह, भोपाल

About All of Us

This National Unity Day on October 31st, read and discuss Parag books that celebrate the unique diversity of our country and the world at…

Tuhina Sharma Parag Reads 31th October 2023 English

A Day with Kahaaniwali Nani

“In times of trouble, libraries are sanctuaries” – Susan Orlean, The Library Book.And so they are, at least in the pediatric cancer…

Tuhina Sharma Parag Reads 11th September 2023 English