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किताब का नाम – इकतारा बोले
प्रथम संस्करण 2017
लेखन – प्रियंवद
प्रकाशक – तक्षशिला पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य – 150 रुपये

इकतारा बोले हिन्दी कथाकार प्रियंवद की लिखी कथेतर किताब है। इस किताब में प्रियंवद ने विश्व के दस महान यात्रियों की जिन्दगी और यात्राओं के बारे में लिखा है। किताब की भूमिका में प्रियंवद ने लिखा है-‘यात्री वे लोग होते हैं जो अपना देश, परिवार, सुखी सम्पन्न जीवन छोड़कर हजारों मील दूर, अनजान देशों में वर्षों भटकते हैं। जिज्ञासा, उत्सुकता और कुछ नया जानने की तड़प के कारण कई बार भूखे प्यासे रहते हुए अपने जीवन को खतरों में भी डालते हैं। दुर्गम रास्तों से गुजरते हुए, अपरिचित, अनजान लोगों के बीच रहकर,गहरी दृष्टि से जीवन को नजदीक से देखते हैं।…‘‘इकतारा’’ की तरह बिल्कुल अकेले, अपनी आत्मा की धुन में मग्न ये यात्री, मनुष्य के संकल्प, वीरता और साहस का अमर गान होते हैं।’

भूमिका की इन पंक्तियों के संदर्भ में किताब का यह अंश देखते हैं जिसमें गोबी की भयानक यात्रा का वर्णन करते हुए फाहियान ने लिखा है, “अनेक दुष्ट आत्माएँ और गर्म हवाएँ इसमें निवास करती थीं जो किसी को नहीं छोड़ती थीं। न ऊपर पक्षी दिखते थे न नीचे पशु। मार्ग को पहचानने के लिए चारों ओर निगाह दौड़ाने पर सिवाय मरे हुए आदमियों की जली हुई हड्डियों के और कुछ नहीं दिखता था।”

इन यात्रियों के जीवन के संक्षिप्त लेकिन बड़े ही सारगर्भित विवरण प्रियंवद ने इस किताब में दर्ज किए हैं। इतिहास के ज्ञान से समृद्ध सरल और रसपूर्ण भाषा में उन्होंने इन दस पाठों को तैयार किया है। इन वृतांतों को पढ़ते हुए एक ओर घटानाएँ रोमांचित करती है दूसरी ओर सोचने पर मजबूर करती हैं कि हजारों वर्षों के इतिहास में मनुष्य ने महानताओं की कैसी-कैसी ऊँचाईयों को छुआ है और कैसी-कैसी क्रूरताओं को भी अंजाम दिया है। जब फाहियान के विवरणों में बुद्ध के विचारों के प्रति चीन का अविश्वनीय प्रेम देखते हैं तो रोमांच होता है, लेकिन जब इब्न बतूता के विवरणों में भारत में पतियों की मृत्यु पर स्त्रियों को जलाये जाने के लोमहर्षक दृश्य देखते हैं, (जिन दृश्यों का साक्षी रहते बतूता बेहोश होकर गिर गया था) तो शर्म, क्षोभ और शोक के मिलेजुले भावों से दिल भर आता है।

प्रियंवद ने इन यात्रियों की विवरणों को आलोचानात्मक नजरिए से भी देखा है जैसे कि अलबरूनी के लिखे पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि ‘वह पाणिनी, पतंजली, वराहमिरी, ब्रह्मदत्त, आर्यभट्ट आदि को बहुत महत्व नहीं देता या अवैज्ञानिक ठहराता है। वास्तव में यह आधी-अधूरी पुस्तकों को पढ़ने और सुनी हुई बातों पर विश्वास करने का प्रभाव है।’ अलबरूनी के काम की सीमाओं की पड़ताल करते हुए प्रियंवद कहते हैं कि ‘अलबरूनी महमूद गजनवी के दरबार में था जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किए।…अलबरूनी के लिए संभव नहीं था कि वह इस्लामी सभ्यता और संस्कृति, साहित्य व विज्ञान को बराबर की टक्कर देने वाली हिन्दू सभ्यता को कहीं भी किसी स्तर पर श्रेष्ठ कह सके।’ अलबरूनी के इस अंतर्विरोध को पहचान लेने के बाद प्रियंवद के मन में इस यात्री के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आती, वे इस पाठ का अंत इस पंक्ति के साथ करते हैं कि ‘भारत आने वाले समस्त यात्रियों में अलबरूनी महानतम है।’ यह इतिहास के प्रति प्रियंवद के भी वस्तुनिष्ठ नजरिए को प्रकट करने वाली बात है।

किताब में आए अनेक विवरण हमें मनुष्य जीवन के बारे में सोचने पर मजबूर करते हैं। रजिया सुल्तान जिसने चार साल शासन किया, एक लड़ाई के बाद वह थकान से चूर निढाल होकर एक खेत में बेहोश पड़ी थी। वहाँ एक व्यक्ति ने उसे मार दिया और लूट लिया। उसने हीरे-जवाहरात की वह पोटली लूट ली जो उसके कपड़ों में कहीं बँधी थी। रजिया ने हीरों की ये पोटली संकट काल में जीवन संघर्ष के लिए रखी होगी लेकिन संकट ऐसा आया कि वह उसके कुछ काम नहीं आयी। उस व्यक्ति ने रजिया को खेत में गाड़ दिया और उसकी देह के वस्त्रों को बाजार में बेचते हुए पकड़ा गया। यहाँ हम सोचने पर मजबूर होते हैं कि देखिए मनुष्य कितना लालची और क्रूर हो सकता है कि हीरे जवाहरत की पोटली से उसके लालच की भूख नहीं मिटी उसने रजिया के कपड़े तक जा बेचे।

सत्ता के लिए कैसे औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को जेल में कैद करके रखा और अपने बड़े भाई दाराशिकोह पर धूल डालकर जुलूस निकाला और ले जाकर उसका कत्ल कर दिया। जब शाहजहाँ जेल में था तो उसका एक गुलाम शाहजहाँ से तुच्छ गुलामों जैसा व्यवहार करता था। प्रियंवद लिखते हैं ‘ध्यान दें कि यह वही शाहजहाँ था जिसके पास कोहिनूर था, तख्तेताऊस था। और जिसने ताजमहल बनवाया था।’

इन यात्रियों के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर प्रियंवद खुद भी अपने समय का इतिहास भी बताते चलते हैं-“श्वेनत्सांग अफगानिसतान से बामियान पहुँचा। उसने वहाँ बनी बुद्ध की दो अद्भुत विशाल मूर्तियों का वर्णन किया है। जिनकी ऊँचाई 170 और 115 फुट थी। कुछ वर्ष पहले ही अफगानिस्तान के तालिबानों ने इन दोनों मूर्तियों को तोप से नष्ट कर दिया। पूरी दुनिया ने उन्हें रोकने की कोशिशें की थीं। उन्हें धन देने का प्रस्ताव दिया था। जापान ने दोनों मूर्तियाँ सुरक्षित जापान ले जाने की अनुमति माँगी थी। पर कुछ भी नहीं हुआ। दुनिया ने बुद्ध को तोप से उड़ाए जाते हुए देखा था। दोनों मूर्तियाँ पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं।”

इस किताब को पढ़ते हुए एक बात लगातार महसूस होती रही कि काश हमें पाठ्यपुस्तकों में इतने रोचक तरीके से लिखा हुआ इतिहास पढ़ने को मिला होता तो कितना अच्छा रहता। हम इतिहास में स्कूली दिनों से ही रुचि लेने लगते। आज भी बच्चों की इतिहास की पाठ्यपुस्तकें देखता हूँ तो उनकी उबाऊ और बेसिरपैर की भाषा पढ़ी नहीं जाती है। घटिया कागज, घटिया छपाई को देखकर उन किताबों से अरुचि होती है।

इस किताब की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। पुरानी पांडुलिपियों के पन्नों, ऐतिहासिक दस्तावेजों से प्राप्त किए नक्शों, चित्रों और इलस्ट्रेशन के जरिए किताब को रोचक बनाने में इस किताब के सम्पादकों शशि सबलोक और सुशील शुक्ल ने कोई कमी नहीं छोड़ी है।

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