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मैं खुद को बालहंस की पीढ़ी का पाठक मानता हूँ। उससे पहले पराग पत्रिका की चर्चा थी। कुछेक अंक देखने का मौक़ा मिला था। बाल एवं किशोर पाठकों को विभिन्न भाषाओं के शीर्षस्थ रचनाकारों की कहानियों, कविताओं और आलेखों से परिचय निश्चित ही पराग ने करवाया था। लेकिन बालहंस (संपादक – अनंत कुशवाहा) ने संभवतः हिन्दी बाल साहित्य में पहली बार रचनाओं को रचनात्मक चित्रण और सुंदर कलेवर के साथ प्रकाशित किया था। जो रचना को प्रभावशाली तरीके से पाठक के सामने प्रस्तुत करती थी। शुरुआती दिनों में बालहंस के कुछ पृष्ठ ही रंगीन होते थे। बीतते समय के साथ सम्पूर्ण पत्रिका रंगीन छपने लगी थी। परंतु ऐसा नहीं था कि बाल पत्रिका होने की वजह से उसमें केवल चटख और गाढ़े रंग के चित्र ही प्रकाशित होते थे। या कार्टून चित्रों से ही पृष्ठ भरे होते हों….. (आमतौर पर बाल पत्रिकाओं को लेकर जैसी धारणाएँ हुआ करती थीं)। पत्रिका के इलस्ट्रेटर्स समूह ने इस बात का खयाल रखा था कि चित्र सरल तो हों पर रंग और चित्रण का संतुलन बना रहे है। दृश्यात्मक्ता के इस माध्यम को कैसे अधिक से अधिक प्रभावी बनाया जा सके इसकी तमाम कोशिशें बालहंस में दिखती थीं। अमूमन पत्रिकाओं या किताबों की कहानियाँ-कवितायें यदि अच्छी लगती हों तो उसके लेखकों/कवियों के नाम पाठकों को याद हो जाते हैं। जिनका पाठकों द्वारा पसंदीदा कवि या लेखक के रूप में गाहे-बगाहे उल्लेख किया जाता। लेकिन बालहंस के पाठकों ने पहली बार अपने पसंदीदा चित्रकारों के बारे में बात करनी शुरू की थी। मेरे पसंदीदा चित्रकारों में धर्मपाल और अनंत कुशवाहा रहे थे। हालांकि प्रतिमा, कुमकुम, सचिन आदि के चित्रों का योगदान भी पत्रिका को आकर्षक बनाने में बराबर का था। हर चित्रकार की अपनी शैली होती है। बालहंस के इलस्ट्रेटर्स की भी थी। जिसकी वजह से हम चित्रों को देखते ही इलस्ट्रेटर के नाम का अनुमान लगा लेते थे। बाद के वर्षों में सुंदर कलेवर के साथ विभिन्न पत्रिकाएँ जैसे चकमक (एकलव्य भोपाल) और अब प्लूटो-साइकिल इस काम को आगे बढ़ा रही हैं। इनके पास भी इलस्ट्रेटर्स की एक रेंज है। यदि आप भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के नियमित पाठक हैं और किताबों के इलस्ट्रेशन में जरा भी दिलचस्पी रखते हैं तो ‘इलस्ट्रेटर’ शब्द सुनते ही कुछ नाम आपके जेहन में जरूर उभरते होंगे। जैसे – प्रोइति रॉय, राजीव आइप, अतनु रॉय, प्रिया कुरियन, एलेन शॉ आदि। वर्तमान समय में भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाले ये इलस्ट्रेटर नियमित रूप से विभिन्न पत्रिकाओं और प्रकाशन समूहों के लिए काम कर रहे हैं। साथ ही अपने-अपने तरीकों से बाल साहित्य को समृद्ध करने में प्रयासरत हैं। बाल साहित्य में इलस्ट्रेशन को लेकर कुछ नया करने की कोशिश और जद्दोजहद लगातार जारी है। ये पेशेवर लोग जानते हैं कि हमारा समय बदला जरूर है। लेकिन बच्चों को लेकर हमारा नजरिया बहुत अधिक नहीं बदला। आज भी हममें से बहुत लोग इस बात को समझ नहीं पाएंगे कि किताबें बच्चों की अहम जरूरत है। कम से कम कल्पनाशीलता और संवेदनात्मक विकास के लिए जरूरी तो हैं ही। हिन्दी साहित्य में इलस्ट्रेशन का प्रचलन अभी नया है। इसलिए इलस्ट्रेटर्स के लिए विकल्प हैं कि कौन सा काम करना या नहीं करना है। देश में नया काम है। और बहुत सा काम है। जाहिर है इस्लस्ट्रेटर्स की कमी है खासकर वैसे लोग जो बच्चों की ज़रूरत और इच्छाओं को सही तरीकेसे समझने की कोशिश कर रहे हों।

एलेन शॉ इस पीढ़ी के कुशल एवं नवाचारी युवा इलस्ट्रेटर एवं स्टोरीटेलर हैं। वे मूलतः जलरंगों से बच्चों की किताबों में चित्रकारी करते हैं और शुरुआती ही सही लेकिन चुनिन्दा कामों की वजह से बाल साहित्य के क्षेत्र में विशेष स्थान बना चुके हैं। बाल साहित्य के लिए विगत कुछ वर्षों से काम के सफ़र में एलन शॉ ने सप्पू के दोस्त (स्वयं प्रकाश), कैसा-कैसा खाना, लाइटनिंग –बिग बुक (प्रभात) , तुम भी आना (नवीन सागर) , दुनिया मेरी, ज़मीं को जादू आता है, बोली रंगोली, अगर मगर (समय पोस्ट सीरीज़ – गुलज़ार के साथ), वह पेड़ पर चलती है (सुशील शुक्ल), Leopard in Mumbai (Lubaina Bandukwala-Karadi Tales) & Who’s Afraid Of Z? Not Me! (Lubaina Bandukwala-Harper Children), Shikari’s Cycling Adventure (Pratham Books -Payoshni Saraf) आदि किताबों के लिए इलस्ट्रेशन किया है। इन किताबों से गुजरते हुए लगता है कि एलेन के इलस्ट्रेशन किताब की भाषा और कथ्य के साथ बखूबी साझेदारी करते हैं। इनके बनाए चित्र स्थितियों को उभारने वाले तो होते हैं। परंतु प्रयुक्त रंग अलग से ध्यान नहीं खींचते।

एलन के चित्रों पर मेरी नजर सबसे पहले साइकिल पत्रिका के माध्यम से पड़ी थी। वह अक्तूबर-नवंबर 2018 का अंक था जिसके मुख्य-पार्श्व पृष्ठों पर एक लैंडस्केप चित्र प्रकाशित हुआ था। चित्र में कोई शहर का चौक था। खुली जगह। जहां बच्चे अपनी-अपनी साइकिल चलाते हुए नजर आते हैं। साइकिल्स के अलग-अलग मॉडल हैं। बच्चे भी अलग-अलग परिवेश के लगते हैं। लड़के-लड़कियों ने विविध रंगी पोशाकें पहनी हुई हैं। कुछ बच्चों के शर्ट के बटन टूट गए हैं और शर्ट सामने से आधी खुली हुई हवा में लहरा रही है। उन बच्चों के साथ शारीरिक रूप से अशक्त बच्चे भी निर्बाध मज़े मे डूबे दिख रहे हैं। पीछे स्ट्रीट फूड के ठेले सजे हुए हैं। हर उम्र के लोग हैं। एक महिला किसी अनहोनी से आशंकित मुंह पर हाथ रखे खड़ी है। नन्ही चिड़ियाँ उड़ रही हैं। कुल मिलाकर आनंद का माहौल है जिसमें सभी शामिल हैं। बारीक विवरण-चित्रण के बावजूद इस फ्रेम में खाली जगह भी बहुत हैं। ऐसा लगता है कि एलेन को बहुत सारी सूचनाओं और विवरणों का पुलिंदा चित्रों में डालने में मजा आता है। जिसके लिए निश्चित रूप से वे परिप्रेक्ष्य निर्मित करते होंगे।

इसी तरह साइकिल पत्रिका का एक विशेष कवर एलन शॉ ने दिसम्बर-जनवरी 2020 में स्वयं प्रकाश जी के स्मृति में बनाया था। जिसमें स्वयं प्रकाश जी साइकिल पर बच्चों को बिठाकर ले जा रहे हैं। उनके पीछे कई पीढ़ियों के लोग आनंद से चले आ रहे हैं।

प्रतिष्ठित चित्रकार अशोक भौमिक ‘इलस्ट्रेशन’ के बारे में कहते हैं कि “इलस्ट्रेशन’ और ‘पेंटिंग’ में फर्क सामान्यतया लोग नहीं समझते। इलस्ट्रेशन कथ्य पर आधारित होता है।“ फिर सवाल यह उठता है कि जब इलस्ट्रेशन कथ्य पर आधारित होगा तो इलस्ट्रेटर के लिए नया करने की क्या गुंजाइश होगी? उसका काम तो पूर्व निर्धारित कथ्य के इर्द-गिर्द रहेगा। एलन इस बारे में अपनी अलग राय रखते हैं कि अमूमन टेक्स्ट के बीच में काफी खाली जगह होती। एलन के लिए ‘इलस्ट्रेशन’ करना एक मौका होता है ‘दृश्य माध्यम’ को संन्वेषित करने का। एक ‘स्पेस फैक्टर’ भी होता है। वे स्पष्ट करते हैं कि ‘पूरी ज़मीन मिलने पर मैं सारे पर मकान तो नहीं बना सकता न।‘एक टाइम फैक्टर भी होता है। जो चरित्रों के विवरण के साथ बदलता रहता है। इसलिए चरित्रों की डिजाइन वे सबसे पहले करते हैं। उसके बाद सूक्ष्म विवरणों पर जाता हैं। जो कहानी में कहीं न कहीं शामिल रहता है। उसके ऊपर ध्यान देना होता है। जो चरित्र को परिभाषित करता है। इलस्ट्रेशन कथ्य के विचार और परतों को सरल करने की विधि नहीं होनी चाहिए।

उदाहरण के लिए प्रभात की एक किताब है ‘कैसा-कैसा खाना?’ जिसके चित्र एलन ने बनाए हैं। किताब के मुखपृष्ठ के चित्र पहली नज़र में सामान्य से ही लगते हैं। लेकिन जब आप एक-एक पात्र से होकर गुजरते हैं तो चित्र की विशिष्टता गोचर होती है। जैसे एक शब्द है दवाखाना। दवाखाना से सबसे नजदीकी शब्द है डॉक्टर। डॉक्टर शब्द सुनते ही जेहन में सबसे पहले क्या आता है? सफ़ेद कोट पहने एक आदमी। लेकिन यहाँ चित्रकार ने महिला डॉक्टर बनाया है जो इंजेक्शन से दवा की पिचकारी उड़ा रही है। साथ ही बनी है दवाइयों की लंबी लिस्ट। महिला डॉक्टर भी तो होती ही हैं। यह जानी हुई बात है। लेकिन जो सोचने के खाँचे हैं वहाँ यह फिट नहीं हो पाता। इसलिए इसे बार-बार कहने-दिखाने की जरूरत है। इलस्ट्रेटर की कोशिश है कि जो प्रचलित मुहावरे हैं उससे हटकर क्या देखा-सोचा-समझा जा सकता है। इसी कवर पर एक चित्र है जिसमें रेलवे स्टेशन का बोर्ड है। बोर्ड पर लिखा है ‘मुगलसराय’। विगत वर्षों में नाम बदलने का जो अभियान चला उसमें यह नाम बदल दिया गया। यह एक राजनीतिक विषय हो सकता है। यहाँ इलस्ट्रेटर के लिए एक स्कोप है। हालांकि आजकल कलाकार से भी पोलिटिकली करेक्ट होने की अपेक्षा की जाने लगी है। लेकिन उनके विचार से पोलिटिकली करेक्ट चीज बनाना कोई जरूरी नहीं। खुद का पॉइंट ऑफ व्यू रखना चाहिए। जरूरी नहीं कि सभी उससे सहमत हों। अपनी बात, अपने विचार दर्ज़ करने का। उसने यह चित्र के बहाने दर्ज़ किया भी है। इस चित्र में दर्ज़ करके उसने ‘मुगलसराय’ नाम की उम्र बढ़ा दी। कम से कम उसके कुछ पाठकों के बीच यह नाम तो पहुंच ही जाएगा। इसी तरह एलेन अपने चित्रों में जीवन के विरोधाभासों को दिखाने के मौके ढूँढ लेते हैं। ‘कैसा-कैसा खाना’ किताब में ही एक चित्रा है जेलखाना का। जेलखाना जहां कैदी बंद रखे जाते हैं। लेकिन यहाँ इलस्ट्रेटर कैद और आज़ाद दोनों को एक साथ एक फ्रेम में प्रस्तुत करता है। एक तरफ जेल की ऊंची दीवारें हैं। बड़ा सा गेट है जिस पर बड़ा सा ताला लगा है। दरबान सो रहा है। कैदी दीवार फांद कर भाग रहे हैं। साथ ही काँटेदार तारों के ऊपर से पंछी उड़ रहे हैं और नीचे से नदी बह रही है। कितनी अद्भुत कल्पना है इस विरोधाभास के चित्रण की। जेल के साथ आज़ादी की बातों की।

एलन को जटिल इलस्ट्रेशन बनाने में मज़ा आता है। वे सायास ही कोई न कोई –कोई सूचना अपने चित्रों में छुपा देते हैं। पत्रिकाओं के इलस्ट्रेशन को लेकर भी उनकी राय बहुत स्पष्ट लगती है कि – पत्रिकाएँ बार-बार पढ़ी जाती हैं, इसलिए उनका इलस्ट्रेशन जटिल होना चाहिए। कोई न कोई कभी न कभी देखेगा और रिलेट करेगा। लाइटनिंग बिग बुक के लिए काम करने का उनका अनुभव जानना इलस्ट्रेशन की तैयारियों को समझने में मदद करता है। लाइटनिंग के लिए उन्होने आठ गुना बड़े स्केल पर काम किया था। वे संबन्धित अध्ययन करके कहानी के विवरणो को खोज लाते हैं। जो एक मज़ेदार काम होता है। लाइटनिंग के चित्रों के बारे में PHL 2022 की ज्यूरी लिखती है कि “सभी चित्र बेमिसाल है खासकर तब का जब ‘चाँद को गर्व हो रह था…कुछ ही देर पहले वह यहाँ थी’ और बाघिन के वहाँ होने को चित्र में उकेरा गया है।”

विगत माह राजस्थान के बाली ब्लॉक के बच्चों के साथ लाइटनिंग बिग बुक को लेकर काम करने का मुझे मौका मिला था। एक होम लाइब्रेरी में दर्जन भर बच्चों के लिए मैंने इस किताब पर रीड लाउड किया था। इसके चित्र इतने प्रभावी हैं कि पूरी प्रक्रिया के दौरान बच्चे पर पेज पर नजरें गड़ाए हुए थे। पूरी किताब पेंटिंग की एक शृंखला सरीखी है। बाघिन, जंगल और परिवेश की ढेरों बातें इस किताब के चित्रों के बहाने ही संभव हो पायी। किताब के हर फ्रेम को बहुत बारीकी से बनाया गया है। जिससे पाठकों को रणथंभौर के भौगोलिक-सांस्कृतिक परिवेश से परिचित होते हैं एवं बाघिन का कुएं में गिरना, ट्रेंकोलजेशन की प्रक्रिया आदि को नजदीक से महसूस कर पाते हैं। वे लाइटनिंग के साथ रणथंभौर की भावना और जुड़ाव और उस खालीपन को (जो अब लाइटनिंग के न होने की वजह से है) गहरे से समझ पाते हैं।

अपने एक आलेख में कृष्ण कुमार लिखते हैं कि चित्रकला और कविता में कई समानताएं हैं। चित्र अपने भीतर दृष्टि के कई स्तर और पहलू लिए रहता है; खासतौर पर यदि वह हाथ से बनाया गया हो। उधर कविता भी ऐसी-ऐसी परतें उजागर करती है कि उन्हें देखकर एक परिचित दृश्य भी नया और कई बार अनोखा लगता है। ‘तुम भी आना’ कविता संग्रह का प्रकाशन बाल साहित्य में एक परिघटना की तरह देखा जाना चाहिए। यह नवीन सागर की कविताओं का एक बेहतरीन संकलन है। कविताओं पर बने चित्र किसी कैनवस की पेंटिंग सरीखे हैं। एलन का यह काम सम्मोहन पैदा करता है।

एलन शॉ ने अपने काम में गुणवत्ता को तरजीह दी है। उस वर्ग को ध्यान में रखकर काम किया हैं जहां इस तरह के कामों की जरूरत है। फिलहाल हिन्दी बाल साहित्य में उनकी सजग सक्रियता पूरे इलस्ट्रेशन के परिदृश्य को विविधवर्णी और समृद्ध बना रही है। आने वाले समय में उनके अनूठे इलस्ट्रेशन और चित्र-पुस्तकों का इंतजार रहेगा।

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